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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन (सवैया इकतीसा) इन्द्री कै विषय फास रूप रस गंध भाष, इन्द्री वपु रसना औ नासा नैन कान है। पाँच है सरीर नाम द्रव्य मन मनौधाम, करम नोकरम कै परजै प्रमान है ।। अनुवर्ग वर्गना हैं द्रवनु अनंत खंध, मूरतीक नानाभेद पुग्गल निदान है। जे जे दृष्टि गोचर है भूमि व्योमचारी सबै, पुग्गल के रूप तै तै यानी के बरवान हैं।।३६६ ।। (दोहा) वरनादिक जहाँ वीस गुन, सो मूरति परमान । सो मूरति मूरति जहाँ सो पुग्गल अभिधान ।।३६७।। पुग्गल-दरव अनेकविधि, जग में लसे अनन्त । जथा सुमति उद्यम करै, कहत न पावै अन्त ।।३६८।। उपर्युक्त पद्यों में द्रव्य इन्द्रियों एवं उनके विषयों के भोग्य पदार्थों की चर्चा है तथा कर्म-नोकर्म, अणु, वर्ग-वर्गणा आदि उन नाना भेदों का निम्नप्रकार उल्लेख किया गया है जो दृष्टिगोचर होते हैं भले वे भूमि पर हों या आकाशचारी हों सभी पुद्गल के रूप हैं। वर्ण आदि जो पुद्गल के बीस गुण हैं उन्हें भोगते हुए जीव उनमें सुख मानते हैं, जबकि वे जड़ हैं, उनमें सुखगुण ही नहीं है। कहा है कि ह्न “पाँचों शरीर, द्रव्यमन, कर्म-नोकर्म, वर्ग-वर्गणायें, द्रव्याणुओं के अनन्त स्कन्ध, मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के नाना भेद, जो-जो भी दृष्टिगोचर हैं वे सभी भूमिगत एवं आकाश में स्थित सभी पुद्गल के पुगल द्रव्यास्तिकाय (गाथा ७४ से ८२) २९१ स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु व श्रोत्र ह्न ये पाँच इन्द्रियाँ भी जड़ हैं। उनमें भी सुख नहीं है। कोई कहे कि इन्द्रियाँ भी तो ज्ञान में निमित्त होती है न? उसका समाधान यह है कि ह भाई! जाननेवाला तो आत्मा है; इन्द्रियाँ तो जड़ हैं। आत्मा पर पदार्थों को इन्द्रियों से नहीं जानता, स्वयं अपने ज्ञान से ही जानता है। जिन्हें आत्मा के अतीन्द्रिय सुख के स्वाद की खबर नहीं है तथा आत्मा का अनभव नहीं हैं. वे अज्ञानी जीव पाँच इन्द्रिय के विषयों में सुख मानते हैं। ___ मनुष्यों तथा तिर्यंचों के औदारिक शरीर, देवों तथा नारकियों के वैक्रियक शरीर आदि सभी शरीर जड़ हैं, पुद्गल हैं। अज्ञानी जीव शरीर को अपना मानकर संसार में रखड़ (भटक) रहा है। आत्मा अशरीरी है, चैतन्य स्वभावी है, तथा शरीर इससे विरुद्ध जड़ स्वभावी है। ऐसा भेदज्ञान करने से धर्म होता है। आत्मा का ज्ञान होना तथा उसी में स्थिर होना मोक्ष का उपाय है। ज्ञानावरणादि आठ कर्म तथा शरीर आदि नो कर्म पुद्गल हैं, आत्मा से जुदे हैं। आत्मा तो कर्मों से रहित एवं अमूर्तिक है। कर्म तथा नोकर्म मूर्तीक हैं। पुद्गल का स्वरूप आत्मा का स्वरूप नहीं हैं ह्र ऐसा जानकर भेदज्ञान करो। इस जगत में केवली ने कहा है कि ह्न उक्त पर पदार्थों से भेदज्ञान करने की ताकत आत्मा में है। आत्मा का ज्ञान स्वपर प्रकाशक है, स्वयं को जानता है तथा छः द्रव्यों को भी जान लेता है। छह द्रव्य सहित आत्मा की प्रतीति करना आत्मा का स्वभाव है। अतः उसे जानने का प्रयत्न कर।" इसप्रकार मूलगाथा में तो यह कहा है कि ह्र जो विषय इन्द्रियों के उपभोग्य हैं तथा शरीर, मन, कर्म और अन्य जो भी मूर्त हैं वे सब पुद्गल हैं। टीका में पाँच शरीर द्रव्यमन, नोकर्म आदि नाना पुद्गल वर्गणाओं को पुद्गल द्रव्य कहा है। गुरुदेवश्री ने इनके सिवा अज्ञानियों की मान्यता बताते हुए उनके इन्द्रियों द्वारा प्राप्त विषय सुख की चर्चा की है। जो सुख नहीं सुखाभास है। रूप हैं।" इसी गाथा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव श्री कानजी स्वामी कहते हैं कि ह्र “पाँच इन्द्रियों से जो पाँच प्रकार के विषय भोगने में आते हैं, वे जड़ हैं, मूर्तिक हैं। उनमें सुख नहीं है। जो जीव जड़ से सुख मानते हैं, उन्हें कभी भी धर्म एवं शान्ति नहीं मिलती। (154) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७२, दिनांक १२-४-५२, पृष्ठ-१६६९
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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