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________________ २८८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन पर्यायदृष्टि से शरीर व कर्म के संयोग वाला है, पुण्य पाप के विकारीभाव वाला है; तथापि स्वभावदृष्टि से तो तू शरीर व कर्म के बिना ही है। पुण्य-पाप तेरे स्वभाव में प्रविष्ट नहीं हुए हैं। तू तो ज्ञान स्वभावी जैसे का तैसा है। ऐसे शुद्ध चैतन्य की दृष्टि करना ही धर्म है। ___अचेतन परमाणु अपने गुण-पर्यायों को जुदा रखता है, इस बात की उसको स्वयं खबर नहीं है। उसे जाननेवाला तो आत्मा है। आत्मा जानता है कि ह्र ‘परमाणु अपने गुण पर्यायों को स्वतंत्र रखता है' परमाणु की स्वतंत्रता बताकर मात्र परमाणु का ज्ञान कराना उद्देश्य नहीं है; बल्कि आत्मा का ज्ञान करना ही अभीष्ट है। शरीर व कर्मों का संयोग होते हुए भी वे मेरे नहीं है, विकार भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ, ऐसे एकरूप अपने ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव का आदर करना धर्म है।" इसप्रकार गाथा ८१ में परमाणु को एक रस, एक वर्ण, एक गंध तथा दो स्पर्श वाला बताकर उसका स्वरूप बताया है तथा कहा है कि वह परमाणु अशब्द है और परिपूर्ण द्रव्य है। ___ अन्त में गुरुदेवश्री ने विकार को एवं शरीर रूप नोकर्म एवं कर्मों को अपने आत्मा से जुदा बताकर अपने आत्मा के ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। गाथा-८२ विगत गाथा में परमाणु रूप द्रव्य में गुण-पर्यायें होने का कथन है। इस प्रस्तुत गाथा में सर्व पुद्गल के भेदों का उपसंहार है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र उवभोज्जमिदिएहिं य इंदियकाया मणो य कम्माणि। जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पोग्गलं जाणे।।८२।। (हरिगीत) जो इन्द्रियों से भोग्य हैं, अर काय-मन के कर्म जो। अर अन्य जो कुछ मूर्त हैं वे, सभी पुद्गल द्रव्य हैं।।८२|| जो विषय इन्द्रियों द्वारा उपभोग्य हैं एवं शरीर, मन के जो कर्म हैं और अन्य जो कुछ भी मूर्त हैं, उन सबको पुद्गल जानो। ___ आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र “स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दरूप पाँच इन्द्रियों के विषय, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ह्र ये पाँच इन्द्रियाँ, औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तेजस और कार्माण तथा द्रव्यमन, द्रव्यकर्म, नोकर्म तथा इसके अतिरिक्त और भी जो नाना प्रकार की पुद्गल वर्गणायें हैं तथा औदारिक वैक्रियक आहारक तेजस और कार्माण ह ये पाँच प्रकार के शरीर । द्रव्यमन, द्रव्यकर्म, नोकर्म और सभी मूर्त पदार्थ पुद्गल द्रव्य हैं।" उक्त भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा) इन्द्रिय करि जो भोगिए, अर जो इन्द्रिय काय । चित्तकरम मूरत सबै, पुद्गल दरब दिखाय।।३५९।। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७२, पृष्ठ-१३६७, दि. १२-४-५२ के बाद का प्रवचन (153)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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