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________________ २८६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन कवि हीरानन्द उक्त गाथा के संदर्भ में निम्नांकित पद्य कहते हैं ह्र (अडिल्ल) एक वरन-रस-गन्ध, फरस दुय विधि कहा। सबद रूप का हेतु असबद सहजै लहा ।। नाना खंधौं बिषै अनंत दरब लसै। परमाणू सो जान जहाँ गुनक्रम वसै ।।३५९।। ( सवैया इकतीसा) रूप-रस-गंध-फास, परमानु विषै भासु, अनुगामी परिनाम, गुन रूप गाये हैं। एकरूप एकरस एकगंध फास दोई, कामरूप वरतना, परजै कहाये हैं ।। शब्दरूप खंधौतें सबद उपजै सदा, तारौं अनु एक देसी, सबद नाहिं भाये हैं। स्निग्ध रुख गुन तासैं खंद नाना रूप होई, ऐसें पुद्गलानु सदा, लोक मैं दिखाये हैं।।३६० ।। (चौपाई) पाँच वरन मैं एक बरन है, इस पाचौं मैं एक धरन है। गंध दोइ इकगंध सुहाया, फरस आठ दुय फरस बताया।। स्निग्ध-रूक्ष मैं एक कहावै, शीत-उष्ण मैं एक रहावै। ऐसे अनुभै परगट दीखें, पाँच मुख्यगुन जिन सुन सीखें ।।३६२।। (दोहा) पनरह रस की गौनता, पाँच मुख्य गुनजान । सुद्ध अनू मैं कहत है, सात असुद्ध बखान ।।३६३।। आठ फरस गुन जे कहे, तिनमैं लखिए च्यारि । आपस में प्रतिपच्छगति, सात असुद्ध निहारि ।।३६४।। पुद्गल द्रव्यास्तिकाय (गाथा ७४ से ८२) २८७ उक्त पद्यों में कहा है कि ह्न एक परमाणु में एक वर्ण, एक रस, एक गंध तथा दो स्पर्श ये सब पर्यायरूप हैं। ____ गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने प्रवचन प्रसाद नं. १७२ में दिनांक १२४-५२ को गाथा ८१ की व्याख्या में कहा कि ह्न “एक परमाणु में एक रस, एक गंध, एक वर्ण एवं दो स्पर्श हैं। यह परमाणु शब्द की उत्पत्ति का कारण है, किन्तु स्वयं एकप्रदेशी है। इसकारण शब्द की व्यक्तता रहित है तथा वहाँ पुद्गल स्कन्धों से जुदा है, स्कन्ध में रहते हुए भी परमाणु अपनेपने से भिन्न अस्तित्व में है। इसप्रकार पुद्गल द्रव्य का एक परमाणु भी स्वतंत्र द्रव्य है। एक परमाणु में स्पर्श दो, रस एक, गंध एक, वर्ण एक ह्र इसप्रकार पाँच गुण कहे हैं। वह परमाणु जब स्कन्ध के साथ मिल जाता है तब शब्द पर्याय का कारण बनता है। देखो, परमाणु तो जड़ है। परमाणु जब स्थूल स्कन्ध में मिल जाता है तब उसमें यद्यपि दो स्पर्श नहीं रहते तो भी दो स्पर्श आदि गुणों के मूल को कभी छोड़ते नहीं है। परमाणु जड़ है, तो भी वह अपनी स्वतंत्रता के स्वभाव को छोड़ता नहीं है। अज्ञानी को इस बात का भान नहीं है; इसकारण शरीर, मन, वाणी को अपना माना है। शरीर व कर्म की क्रिया मुझसे होती है तथा उस क्रिया से मुझे शान्ति व सुख मिलता है, ऐसी मान्यता होने के कारण शरीरादि से स्वयं को भिन्न नहीं मानता। जब परमाणु स्कन्ध में मिलते हैं तब पर्याय दृष्टि से परमाणु में स्थूलपने से व्यवहार होते हुए भी द्रव्यदृष्टि से तो परमाणु सूक्ष्म अतीन्द्रिय ही है तथा दो स्पर्श की योग्यता वाला है। इसप्रकार जड़ परमाणु अपनी स्वतंत्रता से रहता है। यहाँ आचार्य कहते हैं कि भाई! तू तो ज्ञान स्वभावी है, चेतन है, तू (152)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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