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________________ २१२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन कारण हों तो आकाश में लहरें उठना चाहिए। पानी में लहरें उठने की योग्यता है तो हवा को निमित्त कहा जाता है। ___इसीप्रकार जीवद्रव्य अपने त्रिकाली शुद्धस्वभाव से उत्पन्न एवं नष्ट नहीं होता; सदा टंकोत्कीर्ण स्वभाव चैतन्य मूर्ति है; परन्तु अनादि कर्मों की उपाधि के निमित्त से, चारों गति नाम कर्मों की उपाधि के निमित्त से, चारों गति नाम कर्मों के उदय से नवीन अवस्था को करता है तथा पुरानी अवस्था का नाश करता है। यहाँ 'परद्रव्य के वश अर्थात् कर्म के निमित्त से ऐसा हुआ' ऐसा कहना व्यवहार है; स्वयं अपने शुद्ध स्वभाव से चूककर देवादि पर्यायों में उत्पन्न होने की योग्यता कहें तो देवनाम कर्म के उदय को निमित्त कहा जायेगा। अज्ञानी जीव को भ्रम होता है कि कर्मोदय के कारण जीव स्वर्ग या नर्क में गया, पर ऐसा नहीं होता। जीव की जैसी उपादानगत योग्यता होती है, तब कर्मोदय को निमित्त कहा जाता है।" इस गाथा का तात्पर्य यह है कि ह्न कर्म किसी को राग-द्वेष कराता नहीं है; किन्तु जब जीव स्वयं राग-द्वेष करे तभी राग-द्वेष होते हैं। आत्मा में १४८ प्रकृतियाँ हैं ही नहीं, इसलिए कर्म के ऊपर से लक्ष्य छोड़ देना चाहिए तथा आत्मा वीतराग स्वरूप परम आह्लाद स्वरूप चैतन्य प्रकाश वाला है वही उपादेय है। आत्मा ज्ञाता है तू ऐसा जान कर स्व में एकाग्र हो, यही कथन का सार है। गाथा-५६ विगत गाथा में कहा है कि ह्र नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव नामों वाली कर्म प्रकृतियाँ सत्भाव का नाश और असत्भाव का उत्पन्न करती हैं। अब इस गाथा में कहते हैं कि ह्र उदय से युक्त, उपशम से युक्त और पारिणामिक, क्षय, क्षयोपशम से युक्त जीव के पाँच भाव हैं और उन्हें अनेक प्रकारों में विस्तृत किया जाता है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र उदयेण उवसमेण य खएण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामें। जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु वित्थिण्णा ।।५६।। (हरिगीत) उदय उपशम क्षय क्षयोपशम पारिणामिक भाव जो। संक्षेप में ये पाँच हैं विस्तार से बहुविध कहे ।।५६।। उक्त गाथा में कहते हैं कि ह्र उदय से युक्त उपशम से युक्त, क्षय से युक्त, क्षयोपशम भावों से युक्त और परिणाम अर्थात् पारिणामिक भावों से युक्त जीव के पाँच भाव हैं और उन्हें अनेक प्रकार से विस्तृत किया जाता है, अर्थात् भेद करके देखें ये सभी ५३ प्रकार के प्रभेदों में हैं। ___आचार्य अमृतचन्द्र टीका में प्रत्येक भाव का अर्थ करते हुए कहते हैं कि ह्र फलदान सामर्थ्य से उद्भव होना उदय है। कर्मों का अनुभव उपशम भाव है, उद्भव तथा अनुभव का मिश्ररूप क्षयोपशम भाव है। कर्मों का अत्यन्त वियोग होना अर्थात् आत्यंतिक निवृत्ति होना क्षय है। द्रव्य के स्वरूप की प्राप्ति परिणाम या पारिणामिक भाव है। इसप्रकार जीव के ये पाँच भाव हैं। (115) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १४७, गाथा-१५५, पृष्ठ-११७७, दिनांक १९-३-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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