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________________ २११ गाथा-५५ विगत गाथा में जो सत् का विनाश एवं असत् का उत्पाद कहा है वह पर्यायार्थिकनय से कहा गया है। द्रव्यार्थिकनय से सत् का नाश नहीं होता और असत् का उत्पाद नहीं होता। प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्न पर्यायार्थिक नय से निमित्त सापेक्ष नारक, तिर्यंचादि नामकर्म की प्रकृतियों के निमित्त से सत्भाव का नाश और असत् भाव का उत्पाद होता है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र णेरइयतिरियमणुया देवा इदि णामसंजुदा पयडी। कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स उप्पादं ।।५५।। (हरिगीत) तिर्यंच नारक देव मानुष नाम की जो प्रकृति हैं। सद्भाव का कर नाश वे ही असत् का उद्भव करें||५५|| उक्त गाथा में जीव के उत्पाद-व्यय की कारणभूत कर्म उपाधि को दिखाया है। नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव नामों वाली नामकर्म की प्रकृतियों में कहा गया है कि पर्यायार्थिकनय से नारक, तिर्यंच, मनुष्य व देव नामक नामकर्म की प्रकृतियाँ सत्भाव का नाश और असत्भाव का उत्पाद करती हैं। ___ आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “यह जीव के सत्भाव का उच्छेद और असत् भाव के उत्पाद में निमित्तभूत उपाधि का प्रतिपादन है। जिसप्रकार समुद्ररूप से असत् के उत्पाद और सत् के उच्छेद का अनुभवन न करने वाले ऐसे समुद्र को चारों दिशाओं में क्रमशः बहती हुई हवायें कल्लोलों सम्बन्धी असत् का उत्पाद और सत् का उच्छेद करती हैं जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) अर्थात् अविद्यमान तरंग के उत्पाद में तथा विद्यमान तरंग के नाश में निमित्त बनती है। ___तात्पर्य यह है कि ह्र जीव अपने आत्मीक स्वभावों से उपजता विनशता नहीं है, सदा टंकोत्कीर्ण है; परन्तु उस ही जीव के अनादि कर्मोपाधि के वश से चार गति नामकर्म का उदय उत्पाद-व्यय दशा को करता है। हिन्दी कवि हीराचन्दजी इसी भाव को काव्य की भाषा में कहते हैं ह्र (सवैया इकतीसा) जैसे जल रासि माहि-असत् का उत्पाद, सत् का उच्छेद नाहिं तोयरासि नामी है। तामें क्रमरूप वहै लहरी-समूह सोई, उपजै उछेद होइ तोय बिसारमी ।। तैसें जीवभाव विर्षे सत् का उछेद और, उपजैं असत नाहिं क्रमभाव भामी है। क्रम मैं उदीयमान चारौं गति नामकर्म, ___उदै नास करै भेद जानै सिव गामी है।।२७७ ।। उक्त पद्यों में कवि कहते हैं कि ह्न जैसे जलराशि अर्थात् समुद्र (द्रव्य) में असत् का उत्पाद और सत् का विनास नहीं होता, बल्कि उसकी पर्याय रूप लहरों में ही पवन के निमित्त उत्पाद-व्यय होता है, वैसे ही जीव भाव में सत् का विच्छेद व असत् का उत्पाद नहीं होता, बल्कि निमित्त सापेक्ष पर्यायों में ही चार गति रूप से उत्पाद व्यय होता है। ___ गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी उक्त भावों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ह्र जैसे समुद्र अपने स्वरूप से स्थिर हैं, अपनी उत्पाद-व्यय अवस्था को प्राप्त नहीं होता; परन्तु चारों दिशाओं से हवा के आने पर समुद्र में लहरों का उत्पाद-व्यय होता है। पवन के कारण लहरें नहीं होती। यदि हवा के (114)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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