SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ पञ्चास्तिकाय परिशीलन इन पाँचों भावों में एक पारिणामिक और चार औपाधिक भाव हैं। अर्थात् उपशमादि चार भाव कर्म सापेक्ष हैं और एक पारिणामिकभाव भावभूत या कर्म निरपेक्ष है। इस पारिणामिक भाव के जो भव्यत्वअभव्यत्व दो भेद कहें, वे भी कर्म निरपेक्ष हैं। यद्यपि कर्म की अपेक्षा भव्य-अभव्य भाव जाने जाते हैं। जिनके कर्मों का नाश होता है, वे भव्य तथा जिनके कर्मों का नाश नहीं होता वे अभव्य हैं, जिस जीव का जैसा स्वभाव है, वैसा ही होता, इस भव्य-अभव्य स्वभाव-भवस्थिति के ऊपर हैं, कर्म जनित नहीं हैं। कवि हीरानन्दजी अपनी कविता में कहते हैं ह्र (दोहा) क्षायिक उपसम उदय है, क्षय-उपसम परिणाम । पंच भाव ए जीवकै, बहुत अरथकै धाम ।।२७९ ।। (सवैया इकतीसा ) कर्म-फल उदैरूप औदयिक भाव लसै, उदै का अभाव भाव औपसम जान्या है। उदै-अनुउदै दोऊ छय-उप-समभाव, कर्म के विनास सैती क्षायिक बखान्या है।। दर्व रूप लसै तातें सोई परिणाम कहै, ऐई पाँचौं भाव जीव धारक प्रमान्या है। चारि हैं अशुद्ध हेय सुद्ध एक छायिक हैं, सोई उपादेय कालजोग तैं पिछान्या है।।२८० ।। (दोहा) इनही पाँचौं भाव का करता जीव सदीव । काललब्धि बल” लसै छायिक भाव सुकीव ।।२८१ ।। जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ३७) २१५ उक्त छन्दों में सर्वप्रथम कवि कहता है कि ह्न जीव के क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक आदि पाँच भाव कहे हैं, जो अपने में गंभीर अर्थ छुपाये हैं। फिर सवैया छन्द में पाँचों भावों की परिभाषायें दी हैं। तथा कहा है इनमें चार तो अशुद्ध हैं, हेय हैं तथा एक क्षायिक भाव शुद्ध है, वही उपादेय है, जिसे हमने काललब्धि के आने पर पहचान लिया है। ___ जीव इन पाँचों भावों को सदैव कर्ता है, परन्तु क्षायिकभाव काललब्धि के आने पर प्रगट होता है। इन सबमें एक परम पारिणामिकभाव ही उपादेय है। ___ इसी भाव को स्पष्ट करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी भावार्थ में कहते हैं कि ह्र “ये पाँच भाव जो जीव के होते हैं, इनमें चार भाव कर्मों के निमित्त से होते हैं, उपशमभाव, क्षयोपशमभाव तथा क्षायिकभाव ये तीनों भाव उपचार से मोक्ष के कारण हैं। वस्तुतः निश्चयकारण तो द्रव्य है। औदयिक, औपशमिक, क्षयोपशमिक भाव हेय हैं तथा क्षायिकभाव प्राप्तव्य है तथा चारों भाव कर्म सापेक्ष हैं, तथा पाँचवाँ त्रिकाली स्वभाव पारिणामिक भाव कर्म की अपेक्षा के बिना होता है, अतः वह आश्रय करने की अपेक्षा उपादेय है।" इसप्रकार इस गाथा में पाँच भावों के स्वरूप एवं उनकी हेयौपादेयता का कथन किया है। (116) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १४८, पृष्ठ-११७९, दिनांक १९-३-५२ के बाद
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy