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________________ २०८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन वस्तुतः विरोध नहीं है; क्योंकि द्रव्यार्थिकनय के कथन से सत् का नाश नहीं होता । अतः सत् लक्षण वाले जीव का भी सर्वथा नाश नहीं है। यहाँ पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा सत् का नाश व असत् का उत्पाद कहा है। यहाँ यद्यपि जीव को भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से अनादि-अनन्त व सादि-सान्त कहा गया है; परन्तु ऐसा तात्पर्य ग्रहण करना चाहिए कि पर्यायार्थिकनय के विषयभूत सादि- सान्त जीव आश्रय करने योग्य नहीं; अपितु द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत अनादि-अनन्त टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावी आत्मा ही आश्रय करने योग्य हैं। आचार्य जयसेन की टीका का भावार्थ लिखते हुए कहा गया है कि ह्र जिनवाणी में दो नय कहे हैं (१) द्रव्यार्थिक (२) पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिकनय से वस्तु का न तो उत्पाद है और न नाश है। तथा पर्यायार्थिक नय से नाश भी है और उत्पाद भी है। जैसे कि ह्न समुद्र नित्य- अनित्य स्वरूप है । द्रव्य की अपेक्षा तो समुद्र नित्य है और कल्लोलों की अपेक्षा उपजनाविनशना होने के कारण जल की कल्लोल अनित्य है । इसीप्रकार द्रव्य द्रव्यदृष्टि से नित्य तथा पर्यायदृष्टि से उसकी पर्यायें अनित्य जानना चाहिए । कवि हीरानन्दजी अपनी काव्य की भाषा में कहते हैं कि ह्र ( दोहा ) सत् विनसै उपजै असत्, जीवभाव असमान । यहु विरोध अविरोध है, जिनवर कथन प्रमान ।। २७३ ।। ( सवैया इकतीसा ) नहीं पंचभाव सौं जीव परिणमें सदा, तातैं औदयिक रूप पर भाव नासै है । वेदभाव असाता का ताका उतपात करै, यामै तो विरोध भावनैक न विकास है । दर्व नैन देखे सेती दर्व एक सासुता है, (113) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) पर्यय नैन होतासा नासता सा भासै है । दर्व पर्याय दौ नौ नय का विलास जातैं, २०९ ज्ञानी वस्तुतत्व पावै मोखपास पास है ।। २७३ ।। (दोहा) दरब लखन पर्यजै लखन, जो लखि जानै जीव । सिवमारग सोई लखै जग में मुगत सदीव ।। २७५ ।। यहाँ कवि कहते हैं कि - पर्यायदृष्टि से सत् का नाश एवं असत् का उत्पाद होता है तथा जीव द्रव्य स्वभाव से अविनाशी है। द्रव्यदृष्टि से देखने पर द्रव्य अविनाशी है तथा पर्यायदृष्टि से वस्तु नाशवान दिखती है। ये दोनों नयों का विलास है। ज्ञानी वस्तु को द्रव्यदृष्टि से देखकर मोक्षमार्ग में अग्रसर होते हैं। गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “भगवान के मत में दो नय कहे हैं ह्न (१) द्रव्यार्थिक (२) पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिक नय से वस्तु उपजती- विनसती नहीं है। अनादि-अनन्त एक रूप रहती है। तथा पर्यायार्थिकनय से वस्तु में उत्पाद व्यय होता है। जैसे आत्मा कायम रहकर मनुष्यरूप से मरण देवरूप उत्पन्न होता है। " तात्पर्य यह है कि ह्नद्रव्यापेक्षा वस्तु कायम रहकर पर्याय अपेक्षा से परिणमन शील है। इसप्रकार वस्तु अपेक्षा बिना विरुद्ध दिखने पर भी नयों की अपेक्षा अविरुद्ध है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १४८, गाथा ५४, दिनांक १९-३-५२, पृष्ठ- ११७७
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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