SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन (चौपाई) जैसे करवत धारी कोई काठ चीरना कारज सोई। जो कहुँ करवत हाथ न आवै तो काहे करि काठ छिदावे ॥२५३।। अर जो करवत होय अकेला काठ चीरना प्रगट दुहैला। चीरनहारे बिन को चीरे करवत काठ जदपि है नीरै ।।२५४ ।। तातै छिंदत क्रिया सम्पूरण करवत पुरुष दोउ जब पूरन । तैसे ग्यानी ग्यान जुदाई ग्येय जानता बनै न भाई ।।२५५ ।। एकमेक जो कहिए दौनों तो है ग्यप्ति क्रिया का हौनौ । तातै अविनाभावी कहिए स्यावाद जिनवाणी लहिए ।।२५६ ।। उक्त पद्यों में कवि ने जो कहा उसका भाव यह है ह्र ज्ञानी व ज्ञान भिन्न नहीं हैं। गुण-गुणी में लक्षण भेद होकर भी वस्तु एक है, अभेद है। जैसे ह्र करौंतधारी कोई पुरुष काठ चीरना चाहे, पर काठ न हो तो किसे चीरे? तथा काठ हो और करवत न हो तो किससे चीरे? दोनों हों और चीरने वाला व्यक्ति न हो तो काठ व करवत होते हुए कौन चीरे? इसलिए काठ की छिन्दन क्रिया तभी संभव है जब करवत, काठ व पुरुष तीनों हों। इसीप्रकार ज्ञानी व ज्ञान जुदे होने पर ज्ञेय का जानना नहीं हो सकता। जब दोनों एक-मेक हों तभी ज्ञप्ति क्रिया बन सकेगी। इसप्रकार कवि ने भी दोनों क्रियाओं को अविनाभावी कहा है। इसप्रकार स्याद्वाद से ही वस्तुरूप की सिद्धि है। अब इस बात के स्पष्टीकरण में गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “आत्मा और चैतन्यगुण का सदा सर्वथा भेद हो तो ज्ञान व ज्ञानी दोनों जड़ हो जायेंगे। आत्मा और उसका ज्ञान गुण व पर्याय भिन्न हो तो जानन क्रिया नहीं हो सकेगी। ज्ञान की पर्याय परसे या इन्द्रियों से होने का प्रसंग प्राप्त होगा। ऐसी स्थिति में पर्याय ही नहीं रहेगी तथा पर्याय का अभाव होने पर पर्यायवान भी नहीं रहेगा। जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) धर्म की पर्याय 'पर' के कारण मानने पर धर्म का आधार 'पर' होने पर धर्म नहीं रहता। तथा धर्म का अभाव होने पर धर्मी ह्र आत्मा ही नहीं रहता। __ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, वीर्य वगैरह पर्यायें द्रव्य के आधार से होती हैं ह्र ऐसा न माने तो समय-समय की पर्यायें द्रव्य के साथ एकता नहीं पा सकतीं। पर से पर्याय होना माने तो पर्याय द्रव्य के बिना ठहरे; परन्तु ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि द्रव्य पर्याय बिना रहती ही नहीं है। जो ऐसा मानते हैं कि क्षायिक सम्यग्दर्शन आत्मा के अवलम्बन से नहीं; बल्कि तीर्थंकर के पादमूल के कारण होता है ह्र उनका यह मानना ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने वालों की मान्यता में अपनी पर्याय अपने द्रव्य के आधार न रहकर परद्रव्य के आधार से ठहरी; जब पर्याय आधार के बिना तो रहती नहीं और पर के आधार से होती नहीं। इसकारण पर के कारण से होना मानना असत् कल्पना है। इसीप्रकार जो ऐसा मानता है कि ह्न तीर्थंकर के चरणों में तीर्थकर प्रकृति बँधती है तो इसका अर्थ यह हुआ कि पर्याय द्रव्य के बिना हो गई तथा पर्याय पर से होना मानने पर द्रव्य पर्याय के बिना रहा ह्र इसप्रकार मानने पर तो द्रव्य व पर्याय ह्न दोनों का नाश होने का प्रसंग प्राप्त होगा।" इसप्रकार इस गाथा में जो यह कहा कि ह जिसप्रकार अग्नि व उष्णता की भाँति ज्ञान व ज्ञानी में मात्र गुण गुणी का भेद है, वस्तु भेद नहीं । दोनों में तादात्म्य संबंध है, संयोग आदि कोई अन्य सम्बन्ध नहीं है। (104) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १४४, पृष्ठ ११४५, गाथा-४८, दिनांक १४-३-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy