SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा-४८ विगत गाथा में दो प्रथक्-प्रथक् उदाहरण देकर यह बताया है कि धन व ज्ञान पुरुष को धनी व ज्ञानी करते हैं। जिसप्रकार भिन्न अस्तित्व वाले धन व धनपती हैं, उसीप्रकार तथा अभिन्न अस्तित्व वाले ज्ञान व ज्ञानी हैं। धन व धनी दोनों के भिन्न-भिन्न अस्तित्व हैं, भिन्न-भिन्न संस्थान हैं, भिन्न-भिन्न संख्या हैं, वैसे ही अभिन्न अस्तित्व वाले ज्ञान व जीव में एक अस्तित्व, एक संस्थान व एक संख्या आदि हैं। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्र 'यदि ज्ञानी व ज्ञान सदा परस्पर भिन्न पदार्थ हों तो दोनों अचेतन ठहरेंगे।' मूलगाथा इस प्रकार है ह्र णाणी णाणं च सदा अत्थंतरिदा दु अण्णमण्णस्स। दोण्डं अचेदणत्वं पसजदि सम्मं जिणावमदम् ।।४८।। (हरिगीत) यदि होय अर्थान्तरपना, अन्योन्य ज्ञानी-ज्ञान में। दोनों अचेतनता लहें, संभव नहीं अत एव यह ||४८।। यदि ज्ञानी आत्मा और ज्ञान सदैव परस्पर अर्थान्तरभूत (भिन्न पदार्थभूत) हों तो दोनों को अर्थात् आत्मा और ज्ञान-दोनों को अचेतनपने का प्रसंग प्राप्त होगा; क्योंकि ज्ञान बिना ज्ञानी कैसा? तथा ज्ञानी के बिना ज्ञान किसके आश्रय रहेगा? टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रदेव इसी का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि ह्र 'द्रव्य और गुणों में यदि अर्थान्तरपना अर्थात् भिन्नता हो तो आत्मद्रव्य अपने करण-अंश के बिना अर्थात् ज्ञानरूप साधन के बिना कुल्हाड़ी रहित देवदत्त की भाँति अपने साधन रूप ज्ञान का अभाव होने से जान ही नहीं सकेगा। इसकारण आत्मा को अचेतनपना ठहरेगा। जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) १८९ यदि कोई कहे कि ह्र जिसप्रकार लकड़ी और मनुष्य प्रथक् होने पर भी लकड़ी के संयोग से मनुष्य लकड़ी वाला कहा जाता है, वैसे ही ज्ञान व आत्मा प्रथक् रहकर भी आत्मा को ज्ञान वाला कह देंगे। सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि लकड़ी और मनुष्य की भाँति ज्ञान आत्मा से प्रथक् नहीं है। आश्रय के बिना गुण टिकेगा कहाँ? निर्विषेण द्रव्य और निराश्रय गुण का जगत में अस्तित्व ही नहीं है। ___ इसी बात को आचार्य जयसेन ने अग्नि व उष्णता के उदाहरण से स्पष्ट किया है। वे कहते हैं ह्र जैसे उष्णता को अग्नि के प्रथक् करने पर अग्नि शीतल हो जायेगी, उसीतरह आत्मा से ज्ञान को जुदा करने पर दोनों अचेतन (जड़) हो जायेंगे। अतः ज्ञान आत्मा से भिन्न नहीं है। यह कहकर आचार्य जयसेन ने आ. अमृतचन्द्र के कथन को ही पुष्ट किया है। इसी बात को कविवर हीरानन्दजी कहते हैं ह्र (दोहा) ग्यानी ग्यान विर्षे सदा, अर्थान्तर जो होइ। दुहू अचेतनता लहैं, सम्यक् जिनमत सोई ।।२५१ ।। (सवैया इकतीसा ) ग्यानी को ज्ञान से जुदा जौ पै कहै कोई नर, तौ पै करनाच्छ बिना कैसे जीव चेतै है। ग्यानी बिना ज्ञान तौ पै कारण कर्तृत्व बिना, चेतक बिना ही ज्ञान मूढ़ भाव लसै है।। ग्यानी ग्यान जुदै मिले, चेतना सुभाव तौ पै, द्रव्य कौन गुण कहाँ अस्तिरूप रैतै है। तातै ग्यान ग्यानी भेदता अभेद विर्षे, स्याद्वाद साधि सकै तो पै मोछि कैते है ।।२५२।। (103)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy