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________________ गाथा -४९ विगत गाथा में यह कहा कि ह्न यदि ज्ञानी आत्मा और ज्ञान सदा परस्पर भिन्न पदार्थ हों तो ह्न दोनों को अचेतनपने का प्रसंग प्राप्त होगा । अब प्रस्तुत गाथा में आत्मा और ज्ञान में समवाय सम्बन्ध का निराकरण करके यह कहा है कि वह आत्मवस्तु ज्ञान के समवाय से ज्ञानी नहीं है, आत्मा और ज्ञान में समवाय सम्बन्ध नहीं, बल्कि दोनों में तादात्म्य सम्बन्ध है, दोनों एक ही हैं। मूलगाथा इसप्रकार है हि सो समवाया दो अत्यंतरिदो दु णाणदो णाणी । अण्णाणीति य वयणं एगत्त पसाधणं होदि ।। ४९ ।। (हरिगीत) प्रथक् चेतन ज्ञान के समवाय से ज्ञानी बने । यह मान्यता नैयायिकी जो युक्तिसंगत है नहीं ॥ ४९ ॥ ज्ञान से अर्थान्तरभूत आत्मा अर्थात् ज्ञान से भिन्न आत्मा ज्ञान के समवाय से ज्ञानी बनता है। ऐसा जो नैयायिकों की मान्यता है, वह यथार्थ नहीं है। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “यदि कोई ऐसा कहे कि ज्ञान से अर्थान्तरभूत आत्मा अर्थात् ज्ञान से प्रथक् आत्मा ज्ञान के समवाय से ज्ञानी होता तो उसका ऐसा कहना वास्तव में योग्य नहीं है; क्योंकि ऐसी मान्यता वालों से हमारा प्रश्न यह है कि 'वह आत्मा ज्ञान का समवाय होने से पहले ज्ञानी है या अज्ञानी? यदि समवाय से पहले आत्मा ज्ञानी है तो ज्ञान का समवाय निष्फल है और यदि वह कहे कि ह्न अज्ञानी हैं तो उससे पूछते हैं कि अज्ञान के समवाय से अज्ञानी है कि (105) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) १९३ अज्ञान के साथ एकत्व से अज्ञानी है ? प्रथम ह्न यदि अज्ञान के समवाय संबंध से अज्ञानी है तो ज्ञानी के अज्ञान के समवाय का अभाव होने से समवाय ही नहीं रहा। इसलिए अज्ञानी ऐसा वचन अज्ञान के साथ एकत्व को सिद्ध करता ही है। और जब अज्ञान के साथ एकत्व सिद्ध हैं। तो ज्ञान के साथ एकत्व सिद्ध क्यों नहीं हो सकता? यदि हो सकता है तो समवाय सम्बन्ध मानने की आवश्यकता ही नहीं है। आचार्य जयसेन ने भी आचार्य श्री अमृतचन्द्र के उन्हीं तर्कों से नैयायिक मत के समवाय सम्बन्ध का निराकरण किया है। ज्ञान व ज्ञानी में तो ज्ञानी व ज्ञानगुण में प्रदेश रहित एकता है। और यदि नैयायिक यह कहें कि एकता नहीं है। जयसेनाचार्य के कहने का तात्पर्य यह है कि ह्र ज्ञान से ज्ञानी प्रथक् है तो हम पूछते हैं कि जब ज्ञानगुण का सम्बन्ध ज्ञानी पूर्व था ही नहीं या नया हुआ है तो ज्ञानी उसके पहले ज्ञानी था या अज्ञानी? यदि कहोगे कि ज्ञानी था तो नवीन ज्ञानगुण का कोई प्रयोजन नहीं रहता, वह तो स्वरूप से ही अज्ञान गुण से संयोग अज्ञानी था । यदि कहोगे कि अज्ञानगुण के सम्बन्ध से पहले भी अज्ञानी था तो हम पूछेंगे कि जब पहले से ही अज्ञानी था तो फिर नवीन अज्ञान से कोई प्रयोजन नहीं, स्वभाव से ही वह अज्ञानी ठहरता है। जैसे सूर्य मेघ पटल द्वारा आच्छादित होने से प्रकाश रहित कहा जाता है, परन्तु उस मेघ के प्रभाव से सूर्य अपने स्वभाव से त्रिकाल पृथक् नहीं होता । मेघ पटल की औपाधिकता से हीन-अधिक प्रभा वाला कहा जाता है, वैसे ही यह आत्मा अनादि पुद्गल की उपाधि के सम्बन्ध से अज्ञानी हुआ प्रवर्तित है, परन्तु वह आत्मा अपने स्वाभाविक अखण्ड केवलज्ञान स्वभाव से किसी काल में भी प्रथक नहीं होता। कर्म की उपाधि से ज्ञान की हीनता - अधिकता कही जाती है। इसकारण निश्चय से ज्ञानी से ज्ञानगुण प्रथक नहीं है। कर्म की उपाधि से अज्ञानी कहा जाता है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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