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________________ १९६ नियमसार अनुशीलन अतः कथंचित् भिन्न-अभिन्न है। किसी अपेक्षा से अभिन्न है और किसी अपेक्षा से भिन्न। __ पूर्व-उत्तर भावी जो ज्ञान है, वह आत्मा है - ऐसा कहा है। जो पहले का ज्ञान और पीछे का ज्ञान होता है, वही आत्मा है अर्थात् ज्ञान में पहले-बाद का भेद पड़ता है; परन्तु आत्मा तो पूर्वोत्तरदशा में एक ही है, उसमें भेद नहीं पड़ता है; ज्ञान ही आत्मा है - इसप्रकार आत्मा भेद-अभेद रूप है।" उक्त छन्द में यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञान-दर्शन और आत्मा में कथंचित् भिन्नता है और कथंचित् अभिन्नता है। इसप्रकार वे प्रमाण से भिन्नाभिन्न हैं ।।७८|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथाहिं' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्न ( मंदाक्रांता) आत्मा ज्ञानं भवति न हि वा दर्शनं चैव तद्वत् ताभ्यां युक्तः स्वपरविषयं वेत्ति पश्यत्यवश्यम् । संज्ञाभेदादघकुलहरे चात्मनि ज्ञानदृष्ट्योः भेदो जातो न खलु परमार्थेन बह्नायुष्णवत्सः ।।२७८।। (हरिगीत) यह आतमा न ज्ञान है दर्शन नहीं है आतमा। रे स्वपर जाननहार दर्शनज्ञानमय है आतमा ।। इस अघविनाशक आतमा अरज्ञान-दर्शन में सदा। भेद है नामादि से परमार्थ से अन्तर नहीं ||२७८|| आत्मा ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार आत्मा दर्शन भी नहीं है। ज्ञानदर्शन युक्त आत्मा स्व-परविषय को अवश्य जानता है और देखता है। अघ अर्थात् पुण्य-पाप समूह के नाशक आत्मा में और ज्ञान-दर्शन में संज्ञा (नाम) भेद से भेद उत्पन्न होता है; परमार्थ से अग्नि और उष्णता की भाँति आत्मा और ज्ञान-दर्शन में वास्तविक भेद नहीं है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३८३ गाथा १६२ : शुद्धोपयोगाधिकार १९७ इस छन्द में यही कहा गया है कि यद्यपि दर्शन, ज्ञान और आत्मा में नामादि की अपेक्षा व्यवहार से भेद है; तथापि निश्चय से विचार करें तो उनमें अग्नि और उष्णता की भाँति कोई भेद नहीं है ।।२७८|| १५९ से १६३ तक की गाथाओं के सारांश को प्रस्तुत करते हुए आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी कहते हैं ह्र "गाथा १५९ में कहा है कि भगवान निश्चय से स्व को जानते हैं; क्योंकि वे उसमें तन्मय होकर जानते हैं तथा पर में तन्मय हुए बिना जानते हैं; इसलिये पर को व्यवहार से जानते हैं। गाथा १६० में कहा है कि केवली भगवान के एक समय में ज्ञान-दर्शन दोनों उपयोग होते हैं। गाथा १६१ में कहा है कि ज्ञान पर को प्रकाशता है और दर्शन स्व को प्रकाशता है - इसप्रकार आत्मा को स्वप्रकाशक कहें तो विरोध आता है। गाथा १६३ में कहते हैं कि आत्मा केवल परप्रकाशक हो तो आत्मा से दर्शन भिन्न ठहरे; क्योंकि तुम्हारे मन्तव्य अनुसार दर्शन स्व को देखता है, पर को नहीं देखता; इसलिये उसमें विरोध आता है। गाथा १६२ में ज्ञान को एकान्त से परप्रकाशक मानने पर ज्ञान व दर्शन दोनों भिन्न ठहरते हैं - यह बताया है और इस १६३वीं गाथा में आत्मा को परप्रकाशक मानने पर आत्मा और दर्शन दोनों भिन्न ठहरते हैं - यह बताया है - इसप्रकार प्रत्येक गाथा में विषय की भिन्नता है।" इसप्रकार स्वामीजी ने शुद्धोपयोग अधिकार की आरंभिक पाँच गाथाओं की विषयवस्तु को समझने की सुविधा के लिए गाथाओं के अनुसार संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३८५ ज्ञान के ज्ञेयरूप आत्मा में राग-द्वेष भी हो सकते हैं, होते भी हैं; पर श्रद्धेय आत्मा राग-द्वेषादि भावों से भिन्न ही होता है। ज्ञान आत्मा के स्वभाव एवं स्वभावविभाव सभी पर्यायों को भी जानता है; पर श्रद्धा मात्र स्वभाव में ही अपनत्व स्थापित करती है, एकत्व स्थापित करती है। अत: श्रद्धा का आत्मा मात्र स्वभावमय ही है। ह्रगागर में सागर, पृष्ठ-२४ 99
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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