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________________ १९९ नियमसार गाथा १६३ इस गाथा में भी विगत गाथा में प्रतिपादित विषय को ही आगे बढ़ाया जा रहा है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं । ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।।१६३।। (हरिगीत) पर का प्रकाशक आत्म तो दृग भिन्न होगा आत्म से । पर को न देखे दर्श ह ऐसा कहा तुमने पूर्व में ||१६३|| यदि आत्मा परप्रकाशक हो तो आत्मा से दर्शन भिन्न सिद्ध होगा; क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत अर्थात् परप्रकाशक नहीं है हू तेरी मान्यता संबंधी ऐसा वर्णन पूर्वसूत्र में किया गया है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यह 'एकान्त से आत्मा परप्रकाशक है ह इस बात का खण्डन है। जिसप्रकार पहले १६२वीं गाथा में एकान्त से ज्ञान के परप्रकाशकपने का निराकरण किया गया था; उसीप्रकार आत्मा का एकान्त से परप्रकाशकपना भी निराकृत हो जाता है; क्योंकि भाव और भाववान एक अस्तित्व से रचित होते हैं। यहाँ ज्ञान भाव है आत्मा भाववान है। पहले १६२वीं गाथा में यह बतलाया था कि यदि ज्ञान एकान्त से परप्रकाशक हो तो ज्ञान से दर्शन भिन्न सिद्ध होगा। अब यहाँ इस गाथा में ऐसा समझाया है कि यदि एकान्त से आत्मा परप्रकाशक हो तो आत्मा से दर्शन भिन्न सिद्ध होगा। यदि आत्मा परद्रव्यगत अर्थात् आत्मा एकान्त से परप्रकाशक नहीं है, स्वप्रकाशक भी है तो आत्मा से दर्शन की अभिन्नता भलीभाँति सिद्ध होगी। अतः आत्मा स्वप्रकाशक भी है ह्र यह सहज सिद्ध है। जिसप्रकार १६२वीं गाथा में ज्ञान कथंचित् स्वपरप्रकाशक है ह्र गाथा १६२ : शुद्धोपयोगाधिकार यह सिद्ध हुआ था; उसीप्रकार यहाँ आत्मा भी कथंचित् स्वपरप्रकाशक है ह्र ऐसा समझना चाहिए; क्योंकि अग्नि और उष्णता के समान धर्मी और धर्म का स्वरूप एक ही होता है।" इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “जिसप्रकार १६२वीं गाथा में ज्ञान स्व को जानता है, यह निश्चय है और पर को जानता है, यह व्यवहार है - इसप्रकार ज्ञान का स्वपरप्रकाशकपना सिद्ध हुआ था; उसीप्रकार यहाँ आत्मा का स्व को जानना तो निश्चय है और पर को जानना व्यवहार है; इसप्रकार आत्मा का स्वपरप्रकाशकपना निश्चित हुआ; क्योंकि अग्नि और उष्णता की तरह धर्मी और धर्म का स्वरूप एक होता है। अग्नि धर्मी है और उष्णता उसका धर्म है; जिसप्रकार अग्नि ने उष्णतारूपी धर्म को धारण किया है; उसीप्रकार आत्मा ने जाननेदेखने के स्वभावरूपी धर्म को धारण किया है। इसलिये आत्मा धर्मी है। धर्म और धर्मी एक हैं, भिन्न नहीं। अतः पर की और विकार की रुचि छोड़कर गुण-गुणी की एकता कर - यहाँ इसका यही भाव है।" इसप्रकार हम देखते हैं कि न केवल इस गाथा में अपितु सम्पूर्ण प्रकरण में एक बात ही सिद्ध की गई है कि आत्मद्रव्य तो स्वपरप्रकाशक है ही, उसके साथ ही उसके ज्ञान व दर्शन गुण भी स्वपरप्रकाशक हैं। ___ इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (मंदाक्रांता) आत्मा धर्मी भवति सुतरां ज्ञानदृग्धर्मयुक्तः तस्मिन्नेव स्थितिमविचलां तां परिप्राप्य नित्यम् । सम्यग्दृष्टिनिखिलकरणग्रामनीहारभास्वान् मुक्तिं याति स्फुटितसहजावस्थया संस्थितांताम् ।।२७९।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३८८ 100
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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