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________________ नियमसार अनुशीलन अनशनादि तपश्चरणों का फल मात्र शरीर का शोषण है, दूसरा कुछ भी नहीं । हे स्ववश योगी ! तेरे युगल चरण कमल के चिन्तन से मेरा जन्म सदा सफल है। ११४ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र " धर्म के नाम पर व्रत-तप करे तो भी उसका फल तो मात्र शरीर का शोषण करना ही कहा है। निमित्त व्यवहार में रुचिवान होने से जिसकी दृष्टि विपरीत है, वह जीव कदाचित् व्रत-तप करे तो भी राग और शरीर की क्रिया में धर्म मानकर वह मिथ्या-अभिप्राय को ही पुष्ट करता है; इसलिए अज्ञानी है और इसीलिए अज्ञानी के व्रतादि को बालव्रत एवं बालतप कहा गया है। वास्तव में जब अपने परमानन्द स्वरूप में यथार्थ श्रद्धा-ज्ञान द्वारा स्वसन्मुख एकाग्रता होने पर शुभाशुभ इच्छा नहीं होती और वीतरागी शान्त आनन्द की उग्रता होती है, तब तप होता है और उससे ही स्ववशतारूपी धर्म होता है। मुनिराज कहते हैं कि व्रत-तपादि के विकल्प होने पर भी वे शरणभूत नहीं हैं; परन्तु निज-अखण्डानन्द शुद्ध त्रिकाल कारणपरमात्मा के चरणकमल युगल के चिन्तन से एकाग्रता से मेरा जन्म सदा सफल है। ज्ञानानन्द की दृष्टि और स्थिरता ही श्रेष्ठ है । क्रियाकाण्ड, व्रत, उपवास के राग में रुकना श्रेष्ठ नहीं है। सहजानन्द चिदात्मा ही एकमात्र शरण है।" इस छन्द में विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें अनशनादि तपों का फल मात्र शरीर का शोषण बताया गया है। साथ में यह भी कहा गया है कि स्ववश योगी ही महान है; उनके चरणों की उपासना में ही मानव जीवन सफल है ।। २५१ ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११९८६-१९८७ 58 गाथा १४६ : निश्चय परमावश्यक अधिकार छठवाँ छन्द इसप्रकार है ह्र ( मालिनी ) जयति सहजतेजोराशिनिर्मग्नलोक: स्वरसविसरपूरक्षालितांहः समंतात् । सहजसमरसेनापूर्णपुण्यः ११५ पुराण: स्ववशमनसि नित्यं संस्थितः शुद्धसिद्धः ।। २५२ ।। (रोला ) समता रस से पूर्ण भरा होने से पावन । निरस के विस्तार पूर से सब अघ धोये ।। स्ववश हृदय में संस्थित जो पुराण पावन है। शुद्धसिद्ध वह तेजराशि जयवंत जीव है ।। २५२|| जिसने निजरस के विस्ताररूपी बाढ (पूर) के द्वारा पापों को सर्व ओर से धो डाला है; जो सहज समतारस से भरा होने से परम पवित्र है; जो पुरातन है; जो स्ववश मन में संस्थित है अर्थात् हृदय के भावों को स्ववश करके विराजमान है; तथा जो सिद्धों के समान शुद्ध है ह्र ऐसा सहज तेजराशि में निमग्न जीव सदा जयवंत है। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र " जिसने निजरस के विस्ताररूपी पूर द्वारा स्वसामर्थ्य के बल से पुण्य-पाप को सर्व ओर से धो डाला है। निर्मलस्वभाव में उग्र लीनतारूप स्नान द्वारा विभावभाव को धो डाला है। जिसकी दृष्टि में वीतरागता है तथा जो चारित्र में विशेष शुद्धता प्रगट करके मिथ्यात्व आदि पाप से मुक्त हुए हैं। आत्मा सहज समता रस से पूर्ण भरा हुआ होने से पवित्र है, जो सनातन है तथा पुण्य-पाप रूप व्यवहार राग पवित्र नहीं है, सनातन नहीं है, अनित्य है, मलिन है। जो स्ववश मुनि ज्ञानानन्द में सुस्थित हैं, निर्विकल्पभाव में १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९५
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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