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________________ ११२ नियमसार अनुशीलन वह तो दूसरे समय स्वयं ही छूट जायेगी। वास्तविक बात तो यह है कि निर्मल ज्ञातास्वभाव में यथार्थ श्रद्धा - ज्ञान होने पर विभाव की उत्पत्ति ही नहीं हुई; इसे ही व्यवहार से "विभाव का त्याग किया" - ऐसा कहा जाता है और इस कथन से नास्तिपक्ष का ज्ञान कराया गया है। अस्ति अपेक्षा तो वास्तव में चिदानंद शुद्धस्वभाव में अरागी निश्चयरत्नत्रयरूप जो निर्मलदशा प्रगट हुई है, वही जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताया हुआ मोक्ष का मार्ग है। ऐसे 'उस मार्ग की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ ।' - इसप्रकार मुनिराज को भी ग्रन्थ की रचना करते हुए . ऐसा विकल्प तो आता है; परन्तु उनके चित्त में उस विकल्प का आदर नहीं होता, उनके चित्त में आदर तो एकमात्र वीतरागता का ही होता है। " इस छन्द में जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित मुक्तिमार्ग को जानकर, अपनाकर, अपने जीवन में उतार कर मुक्ति प्राप्त करनेवाले सन्तों की अतिभक्तिपूर्वक वन्दना की गई है ।। २४९ ।। चौथा छन्द इसप्रकार है ह्र ( द्रुतविलंबित ) स्ववशयोगिनिकायविशेषक प्रहतचारुवधूकनकस्पृह । त्वमसि नश्शरणं भवकानने स्मरकिरातशरक्षतचेतसाम् ।। २५० । (रोला ) कनक कामिनी की वांछा का नाश किया हो । सर्वश्रेष्ठ है सभी योगियों में जो योगी ॥ काम भील के काम तीर से घायल हम सब । योगी तुम भववन में हो शरण हमारी || २५० ॥ कंचन - कामिनी की कामना को नाश करनेवाले योगी ही योगियों के समूह में सर्वश्रेष्ठ योगी हैं। हे सर्वश्रेष्ठ योगी कामदेवरूपी भील के तीर से घायल चित्तवाले हम लोगों के लिए आप भवरूप भयंकर वन में एकमात्र शरण हैं। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १९८४-१९८५ 57 गाथा १४६ : निश्चय परमावश्यक अधिकार ११३ आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि जिन मुनिराज को अपने आत्मा में निर्मल गुणमणि की सुन्दरता की गाढ़ रुचि हुई है, उन्हें सुन्दर स्त्री की और सुवर्ण की इच्छा नहीं होती। मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि चिदानन्द ज्ञातास्वभाव में लीन - ऐसे योगीसमूह में श्रेष्ठ हे स्ववश योगी ! हे शुद्धात्मा !! तुम ही एकमात्र हमारे लिए शरण हो I मानसिक विकार-कामेच्छारूप अव्यक्त सूक्ष्म विकल्प भी कभी हो तो वह शरणरूप नहीं है; परन्तु 'सिद्धसमान सदा पद मेरो' अर्थात् मेरा आत्मा ही मुझे श्रेष्ठ शरण है अर्थात् हमारे जैसे मुनि के वर्तमान चारित्रदशा में कमजोरी के कारण यदि कोई राग आ जाये तो वह शरणभूत नहीं है; परन्तु भवरूपी जंगल में हे मुनिश्वर तुम ही शरण हो । यहाँ व्यवहार से मुनिराज को व निश्चय से आत्मा को शरण बताया गया है। " इस छन्द में भी कंचन-कामिनी की वांछा से रहित मुनिराजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की गई है और कहा गया है कि वे कामविजयी मुनिराज कामवासना से त्रस्त हम लोगों के लिए एकमात्र शरण हैं ।। २५० ।। पाँचवाँ छन्द इसप्रकार है ह्र ( द्रुतविलंबित ) अनशनादितपश्चरणैः फलं तनुविशोषणमेव न चापरम् । तव पदांबुरुहद्वयचिंतया स्ववश जन्म सदा सफलं मम ।। २५१ ।। (रोला ) अनशनादि तप का फल केवल तन का शोषण । अन्य न कोई कार्य सिद्ध होता है उससे । हे स्ववश योगि! तेरे चरणों के नित चिन्तन से । शान्ति पा रहा सफल हो रहा मेरा जीवन || २५१|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १९८५-१९८६
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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