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________________ ११६ नियमसार अनुशीलन विराजमान हैं और शुद्ध सिद्ध अर्थात् प्रसिद्ध, विशुद्ध, सुसिद्ध समान हैं। और सहज चिदानन्द तेजपुंज में मग्न हैं, वे जयवंत हैं। " इसप्रकार इस छन्द में उन जीवों या सन्तों की महिमा बताई गई है; जो समतारस से भरे हुए होने से पवित्र हैं, जिन्होंने निजरस की लीनता द्वारा मिथ्यात्वादि पापों को धो डाला है, जो पुरातन है, जो अपने में समाये हुए हैं और सिद्धों के समान शुद्धस्वभावी हैं ।। २५२ ।। सातवें व आठवें छन्द इसप्रकार हैं ह्र ( अनुष्टुभ् ) सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः । न कामपि भिदां क्वापि तां विद्यो हा जडा वयम् ।। २५३ ।। एक एव सदा धन्यो जन्मन्यस्मिन्महामुनिः । स्ववशः सर्वकर्मभ्यो बहिस्तिष्ठत्यनन्यधीः ।। २५४ ।। (दोहा) वीतराग सर्वज्ञ अर आत्मवशी गुरुदेव । इनमें कुछ अन्तर नहीं हम जड़ माने भेद || २५३॥ महामुनि अनन्यधी और न कोई अन्य । सरव करम से बाह्य जो एकमात्र वे धन्य ॥ २५४ ॥ सर्वज्ञ - वीतरागी भगवान और इन स्ववश योगियों में कुछ भी अन्तर नहीं है; तथापि जड़ जैसे हम अरे रे इनमें भेद देखते हैं ह्र इस बात का हमें खेद है। इस जन्म (लोक) में एकमात्र स्ववश महामुनि ही धन्य है; जो निजात्मा में ही अनन्यबुद्धि रखते हैं; अन्य किसी में अनन्यबुद्धि नहीं रखते। इसीलिए वे सभी कर्मों से बाहर रहते हैं। इन छन्दों के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं " इसी नियमसार में पहले ऐसा कह आये हैं कि "जो स्ववश हैं, १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९५-९६ 59 गाथा १४६ : निश्चय परमावश्यक अधिकार ११७ वह जीवनमुक्त हैं, जिनेश्वर देव से किंचित् न्यून हैं। " पर यहाँ तो निर्विकल्प अभेद में इस भेद को भी निकाल दिया है। स्वरूप में लीन निर्विकल्प - आनन्द में स्थित मुनि में और वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा में क्या अन्तर है ? कुछ भी अन्तर नहीं है; फिर भी अरेरे! खेद है कि हम जड़ के समान होकर, विकल्पों में रुक कर उनमें और सर्वज्ञदेव में अन्तर देखते हैं। सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की एकता यह नियम है और इस नियम की पूर्णता मुनिराजों के होती है। ऐसे स्ववश मुनि में और सर्वज्ञ परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है। पहले तो सर्वज्ञ से किंचित् न्यून कहा था, पर यहाँ तो यह कहते हैं। कि सातवें अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि में केवली से न्यूनपने का हमें जो विकल्प आता है, वह विकल्प हमारी जड़ता का सूचक है। अहो! इस जन्म में जो नित्य सिद्ध समान कारणपरमात्मारूप निज चिदानन्द की प्रतीति और रमणता में वर्तता है, वह स्वाधीन है और जो विकल्प में वर्तता है, वह पराधीन है। निरन्तर स्ववश ज्ञानानन्द में लीन ऐसे महामुनि ही एक धन्य हैं। वे स्वरूपगुप्त अर्न्तमुख कारणपरमात्मा में अभेद होकर निर्विकल्प वीतराग परिणति में वर्तते हैं। निजात्मा के अतिरिक्त अन्य के प्रति लीन नहीं होते; इसलिए सर्वकर्मों से बाहर रहते हैं। सदा राग के कार्यों से बाहर और वीतरागी समतास्वरूप के अन्दर रहते हैं।" इसप्रकार इन छन्दों में यही कहा गया है कि यद्यपि निश्चय परम आवश्यकों को धारण करनेवाले मुनिराजों और वीतरागी सर्वज्ञ भगवान में 'कुछ भी अन्तर नहीं है; तथापि हम उनमें अन्तर देखते हैं । हमारा यह प्रयास जड़बुद्धियों जैसा है; क्योंकि अपने में अपनापन रखने वाले, निश्चय परम आवश्यक धारण करनेवाले महामुनि ही धन्य हैं, महान हैं ।। २५३ - २५४ ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९५-९६ २. वही, पृष्ठ ९६-९७ ३. वही, पृष्ठ ९७
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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