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________________ ११० नियमसार अनुशीलन आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "जो पुण्य-पाप के भाव करता है, वह उदार नहीं है; परन्तु जिसमें कभी समाप्त नहीं होनेवाली - ऐसी परमानन्दमय शान्ति का प्रवाह निरन्तर चालू रहता है - ऐसे अक्षय-निधान ध्रुव सामान्य शक्ति से परिपूर्ण स्वभाव का स्वीकार करनेवाला ही उदार है। - यही सच्ची उदारता है। जिसने भव के कारण को नष्ट करने के लिए स्वाश्रित निश्चय रत्नत्रयरूप मोक्ष का कारण प्रगट किया है और पूर्व में हुए विकारों को नष्ट कर दिया है; तथा जिसने स्पष्ट, प्रत्यक्ष, उत्कट, विवेक द्वारा शक्तिरूप पूर्णस्वभाव को प्रगट किया है और जो व्यक्त, शुद्ध, ज्ञानानन्दस्वरूप सदा कल्याणमय है - ऐसी सम्पूर्ण मुक्ति/स्वाधीनता को जो प्रमोद से प्राप्त करते हैं, वे मुनि ही स्ववश हैं, कृतकृत्य हैं, जयवंत हैं।" जो बात गाथा और टीका में कही है; उसी बात को इस कलश में दुहराते हुए कहते हैं कि पूर्व कर्मावली को नष्ट करनेवाले और संसार के कारण को भी जड़मूल से उखाड़नेवाले, उदारबुद्धि मुनिराज ही मुक्ति को प्राप्त करते हैं। वे श्रेष्ठतम मुनिराज ही निश्चय परम आवश्यक कर्म के धारक हैं।।२४७।। दूसरा छन्द इसप्रकार है ह्र (अनुष्टुभ् ) प्रध्वस्तपंचबाणस्य पंचाचारांचिताकृतेः। अवंचकगुरोर्वाक्यं कारणं मुक्तिसंपदः ।।२४८ ।। (दोहा) काम विनाशक अवंचक पंचाचारी योग्य। मुक्तिमार्ग के हेतु हैं गुरु के वचन मनोज्ञ ||२४८।। गाथा १४६ : निश्चय परमावश्यक अधिकार १११ पंच बाणों के धारक कामदेव के नाशक ज्ञान; दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यरूप पाँच आचारों से सुशोभित आकृतिवाले अवंचक गुरु के वाक्य ही मुक्ति संपदा के कारण हैं। __ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “जिन्होंने कामदेव का नाश किया है और ज्ञान-दर्शन-चारित्रतप-वीर्यात्मक पंचाचार से सुशोभित जिनकी आकृति है अर्थात् जो साक्षात् सुन्दर मोक्षमार्ग की मूर्ति हैं; तात्पर्य यह है कि बाह्य-अभ्यंतर शीतलता प्रदान करनेवाली, शान्त, वीतरागी, परम-महिमावंत जिनकी पवित्रदशा है। - ऐसे निष्कपट श्री गुरुओं के वाक्य मुक्तिसम्पदा के कारण हैं।" इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि सर्वज्ञ भगवान की वाणी के अनुसार कहे गये अवंचक गुरुओं के वचन ही मुक्तिमार्ग में सहयोगी होते हैं।।२४८|| तीसरा छन्द इसप्रकार है ह्र (अनुष्टुभ् ) इत्थं बुद्ध्वा जिनेन्द्रस्य मार्ग निर्वाणकारणम् । निर्वाणंसंपदं याति यस्तं वंदे पुनः पुनः ।।२४९।। (दोहा) जिनप्रतिपादित मुक्तिमग इसप्रकार से जान । मुक्ति संपदा जो लहे उसको सतत् प्रणाम।।२४९|| मुक्ति का कारण जो जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित मार्ग है; उसे इसप्रकार जानकर जो निर्वाण प्राप्त करता है; मैं उसे बारम्बार वंदन करता हूँ। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ “मूल में अर्थात् गाथा १४६ में यह तो कहा है कि परभाव को छोड़ता है, परन्तु एक समय की पर्याय के बारे में कुछ नहीं कहा; क्योंकि 56 १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १९८३ २. वही, पृष्ठ ११८६-११८४
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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