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________________ १०९ नियमसार गाथा १४६ अब इस गाथा में साक्षात् स्ववश मुनिराज कैसे होते हैं ह्र यह बताते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं । अप्पवसोसो होदिहु तस्सदुकम्मभणंति आवासं ।।१४६॥ (हरिगीत) परभाव को परित्याग ध्यावे नित्य निर्मल आतमा । वह आत्मवश है इसलिए ही उसे आवश्यक कहे ।।१४६|| परभावों का त्याग करके जो निर्ग्रन्थ मुनिराज अपने निर्मलस्वभाव वाले आत्मा को ध्याता है, वह वस्तुतः आत्मवश है। उसे आवश्यक कर्म होते हैं ह्र ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यहाँ साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वर का स्वरूप कहा है। निरुपराग निरंजन स्वभाववाले होने के कारण जो श्रमण औदयिकादि परभाव को त्याग कर, इन्द्रिय, काया और वाणी के अगोचर सदा निरावरण होने से निर्मलस्वभाववाले और पापरूपी वीर शत्रुओं की सेना के ध्वजा को लूटनेवाले निजकारण परमात्मा को ध्याता है, उस श्रमण को आत्मवश श्रमण कहा गया है। उस अभेद-अनुपचार रत्नत्रयात्मक श्रमण को समस्त बाह्य क्रियाकाण्ड आडम्बर में विविध विकल्पों के महाकोलाहल से प्रतिपक्ष महा आनन्दानन्दप्रद निश्चय धर्मध्यान और निश्चय शुक्लध्यान स्वरूप परमावश्यक कार्य होता है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "जगत के अज्ञानी बाह्य स्वतंत्रता से ही अपने को स्वतंत्र मान गाथा १४६ : निश्चय परमावश्यक अधिकार लेते हैं; परन्तु वे सभी परतंत्र हैं। मुनिभगवंतों के भी जितने अंशों में राग है, उतने अंशों में परतंत्रता है। अभेद-अनुपचार निर्विकल्पदशारूप/ निश्चयरत्नत्रयस्वरूप मुनिराज के परम-आवश्यक होता है।' यह स्वाधीनतारूप परम-आवश्यक कार्य समस्त बाह्य क्रियाकाण्ड आडम्बर के विविध विकल्पों के महाकोलाहल से विरुद्ध महाआनन्दानंददाता निश्चयधर्मध्यान व निश्चयशुक्लध्यान रूप है।" ____ गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि वे परमजिन योगीश्वर मुनिराज औदयिकादि परभावों को त्यागकर एकमात्र परमपारिणामिकभावरूप निज कारण परमात्मा को ध्याते हैं; वे ही वास्तव में आत्मवश श्रमण हैं, स्ववश हैं, निश्चय परम आवश्यक वाले महाश्रमण हैं ।।१४६।। ___इसके बाद टीकाकार मुनिराज आठ छन्द लिखते हैं, जिनमें से पहला छन्द इसप्रकार है ह्न (पृथ्वी ) जयत्ययमुदारधी: - स्ववशयोगिवृन्दारक: प्रनष्टभवकारण: - प्रहतपूर्वकर्मावलिः । स्फुटोत्कटविवेकत:स्फुटितशुद्धबोधात्मिकां सदाशिवमयां मुदा व्रजति सर्वथा निर्वृतिम् ।।२४७ ।। (ताटक) शुद्धबोधमय मुक्ति सुन्दरी को प्रमोद से प्राप्त करें। भवकारण का नाश और सब कर्मावलि का हनन करें। वर विवेक से सदा शिवमयी परवशता से मुक्त हुए। वे उदारधी संत शिरोमणि स्ववश सदा जयवन्त रहें।।२४७|| भव के कारण को नष्ट किया है जिसने और पूर्व कर्मावली का हनन करनेवाला सन्त स्पष्ट, उत्कृष्ट विवेक द्वारा प्रगट शुद्धबोधस्वरूप, सदा शिवमय, सम्पूर्ण मुक्ति को प्रमोद से प्राप्त करता है; ऐसा वह स्ववश मुनिश्रेष्ठ जयवंत है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११८९ २. वही, पृष्ठ ११९० 55
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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