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________________ नियमसार अनुशीलन से कुछ ही कम हैं। तात्पर्य यह है कि वे अल्पकाल में ही भगवान बननेवाले हैं।।२४३।। पाँचवाँ छन्द इसप्रकार है तू (आर्या ) अत एव भाति नित्यं स्ववशो जिननाथमार्गमुनिवर्गे। अन्यवशो भात्येवं भृत्यप्रकरेषु राजवल्लभवत् ।।२४४ ।। (ताटंक) अतःएव श्री जिनवर पथ में स्ववश मुनि शोभा पाते। और अन्यवश मुनिजन तो बसचमचों सम शोभा पाते||२४४|| इसीलिए स्ववश मुनि ही मुनिवर्ग में शोभा पाता है; अन्यवश मुनि तो उस चापलूस नौकर के समान है कि जो भले ही अपनी चापलूसी के कारण थोड़ी-बहुत इज्जत पा जाता हो, पर शोभा नहीं देता। इस छन्द का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "इसप्रकार जिननाथ के मार्ग में नित्यस्वरूपप्रत्यक्ष कारण परमात्मा के सन्मुख चिदानंद में लीन मुनि ही शोभा देते हैं; व्यवहार, पुण्य-पाप एवं विकल्पों के वश बहुत प्रकार की शुभक्रिया करनेवाले निमित्ताधीन दृष्टिवान जीव वीतरागमार्ग में सुशोभित नहीं होते। वे अन्यवश पराश्रय दृष्टिवान पुरुष अपने मालिक को मात्र खुशामद करके खुश करनेवाले मूर्ख नौकर की भाँति शोभा नहीं देते अर्थात् व्यवहार व्रतादि क्रियाकाण्ड द्वारा लोकरंजन करनेवाले को लोग अच्छा माने; परन्तु वे आत्मानुभव रहित होने से, निश्चय-आवश्यकस्वरूप एकाग्र आनन्द में लीन मुनियों में शोभा नहीं देते।” इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि स्ववश मुनिराज ही शोभास्पद हैं, अन्यवश नहीं ।।२४४।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११८३ मेरा यह त्रिकाली ध्रुव परमात्मा देहदेवल में विराजमान होने पर भी अदेही । है, देह से भिन्न है। ह्रगागर में सागर, पृष्ठ-२० नियमसार गाथा १४४ विगत गाथाओं में स्ववश और अन्यवश मुनिराज की चर्चा चल रही है। इस गाथा में भी उसी बात को आगे बढ़ाते हुए कुछ गंभीर प्रमेय उपस्थित करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो। तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ।।१४४ ।। (हरिगीत) वे संयमी भी अन्यवश हैं जो रहें शुभभाव में। उन्हें आवश्यक नहीं यह कथन है जिनेदव का ||१४४|| जो संयमी जीव शुभभाव में प्रवर्तता है; वह वस्तुतः अन्यवश है; इसलिए उसे आवश्यकरूप कर्म नहीं है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “इस गाथा में भी अन्यवश अशुद्ध अन्तरात्मा जीव का लक्षण कहा गया है। जो श्रमण जिनेन्द्र भगवान के मुखारविन्द से निकले हुए परम आचार शास्त्र के अनुसार सदा संयत रहता हुआ शुभोपयोग में रहता है, प्रवर्तता है; व्यावहारिक धर्मध्यान में रहता है; इसलिए चरण करण प्रधान है, आचरण आचरने में प्रधान है; स्वाध्याय काल का अवलोकन करता हुआ स्वाध्याय करता है; प्रतिदिन भोजन करके चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान (त्याग) करता है; तीन संख्याओं के समय अर्थात् प्रातः, दोपहर और सायंकाल भगवान अरहंत परमेश्वर की लाखों स्तुतियाँ मुख से बोलता है; तीन काल नियम परायण रहता है; इसप्रकार दिनरात ग्यारह क्रियाओं में तत्पर रहता है; पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक (वार्षिक) प्रतिक्रमण सुनने से उत्पन्न संतोष से जिसका धर्मशरीर रोमांचित होता है; अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्ति
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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