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________________ १०० नियमसार अनुशीलन परिसंख्यान, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश नाम के छह बाह्य तपों में जो सदा उल्लसित रहता है; स्वाध्याय, ध्यान, शुभ आचरण से च्युत होने पर पुन: उनमें स्थापनरूप प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य और व्युत्सर्ग नामक आभ्यन्तर तपों के अनुष्ठान में जो कुशलबुद्धिवाला है; परन्तु वह निरपेक्ष तपोधन मोक्ष के साक्षात् कारणरूप स्वात्माश्रित आवश्यक कर्म को निश्चय से परमात्मतत्त्व में विश्रान्तिरूप निश्चय धर्मध्यान को, शुक्लध्यान को नहीं जानता; इसलिए परद्रव्य में परिणत होने से उसे अन्यवश कहा गया है। ___ जिसका चित्त तपश्चरण में लीन है, ऐसा वह अन्यवश श्रमण देवलोकादि के क्लेश की परम्परा प्राप्त होने से शुभोपयोग के फलस्वरूप प्रशस्तरागरूप अंगारों से सिकता हुआ, आसन्नभव्यतारूपी गुण का उदय होने पर परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त परमतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानस्वरूप शुद्ध निश्चय परिणति द्वारा निर्वाण को प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि शुद्ध निश्चय परिणति प्राप्त होने पर ही निर्वाण को प्राप्त करता है।" उक्त गाथा और उसकी टीका का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ पराश्रय की श्रद्धा अर्थात् व्यवहार में लीन ऐसे अन्यवश अशुद्ध-अन्तरात्मा का लक्षण कहा जाता है। जो श्रमण वास्तव में जिनेन्द्र देव की दिव्यध्वनि में बताये गये परमावश्यक के लिए जिसप्रकार शास्त्र में व्यवहार क्रिया का अधिकार है, उसप्रकार पालता है अर्थात् व्यवहारमात्र में सदा संयत रहता हआ दया-दान एवं व्रतादि शुभोपयोग में प्रवर्तता है, पराश्रित व्यवहार धर्मध्यान में रुकता है - अटकता है, वह शुभकर्मचेतना के आचरण में ही सदा तत्पर रहता हआ स्वाध्याय आदि ग्यारह क्रियाओं को इसप्रकार करता है : (१) स्वाध्यायकाल का ध्यान रखता हआ स्वाध्याय की क्रिया करता है अर्थात् शास्त्रों को पढ़ता है, पढ़ाता है। गाथा १४४ : निश्चय परमावश्यक अधिकार १०१ (२-५) प्रतिदिन निर्धारित समय पर एक बार आहार करके चतुर्विध आहार का त्याग करता है। (६-८) तीन संध्याओं के समय अर्थात् प्रातः, मध्यान्ह और सायंकाल अपने मुखकमल से भगवान अरहंत परमेश्वर की स्तुति बोलता है। (९-११) तीनों काल व्यवहार नियमों में तत्पर-सावधान रहता है। इसप्रकार दिन-रात उक्त ग्यारह क्रियाओं में सदा तत्पर रहता है।" यद्यपि इस गाथा में मात्र इतना ही कहा गया है कि जो जीव संयत होने पर भी शुभभाव में प्रवर्त्तता है, वह अन्यवश है; इसलिए उसे आवश्यकरूप कर्म नहीं है; तथापि तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव गाथा का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए आरंभ में ही लिख देते हैं कि इस गाथा में अशुद्ध अन्तरात्मा का कथन है। 'संयत' पद का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि वह जिनागम संयत आचरण का पालन करता है, जिनागम का अध्ययन करता है, प्रत्याख्यान करता है, अर्हन्त भगवान की स्तुति करता है, प्रतिक्रमण करता है; अनशनादि छह बाह्य तप और प्रायश्चित्तादि छह अंतरंग तपों में उत्साहित रहता है। इसप्रकार वह न केवल जिनागम का अध्येता है, अपितु उसे जीवन में अपनाता भी है, आचरण में भी लाता है। ऐसा संयत होने पर भी अन्यवश ही है, स्ववश नहीं, निश्चय परमावश्यक का धारी नहीं है। क्योंकि परमतत्त्व में विश्रान्तिरूप निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप परिणमित नहीं होता। इसलिए वह अन्यवश ही है, स्ववश नहीं। उसके भविष्य के बारे में उनका कहना यह है कि वह अन्यवश श्रमण शुभोपयोग के फलस्वरूप प्रशस्तरागरूप अंगारों से सिकता हुआ क्लेश पाता है। अन्त में ऐसा भी लिखते हैं कि वह आसन्नभव्य सद्गुरु के प्रसाद १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११७६-११७७ 51
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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