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________________ ९६ परिप्राप्यैतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं सुखं रेमे कश्चिद्वत कलिहतोऽसौ जडमतिः ।। २४२ ।। ( ताटंक ) नियमसार अनुशीलन मतिमानों को अतिप्रिय एवं शत इन्द्रों से अर्चित तप । उसको भी पाकर जो मन्मथ वश है कलि से घायल वह || २४२ ॥ सौ इन्द्रों से भी सतत् वंदनीय तपश्चर्या लोक में सभी बुद्धिमानों प्राणों से भी प्यारी होती है। ऐसी तपश्चर्या प्राप्त करके भी जो जीव कामान्धकार सहित सांसारिक सुखों में रमता है; वह स्थूलबुद्धि कलिकाल से मारा हुआ है। इस छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “सौ इन्द्रों द्वारा वंदनीय महान मुनिवेश धारण करके भी जो भोगादि में सुख मानता है, वह कामान्धकाररूप संसार से उत्पन्न सुख में रमता है । वह व्यवहार का पक्ष करके पुण्यादि विकारीभावों में उत्साही होकर ज्ञातास्वभाव का विरोध करता है। वह जड़मति है । " विगत छन्द के समान इस छन्द में भी यही कहा गया है कि जो तप शत इन्द्रों से वंदनीय है; उसे प्राप्त कर भी जो विषयों में रमता है, वह कलयुग का मारा हुआ है, अभागा है। तात्पर्य यह है कि तप एक महाभाग्य से प्राप्त होनेवाला आत्मा का सर्वोत्कृष्ट धर्म है; उसे शास्त्रों में निर्जरा का कारण कहा गया है। ऐसे परमतप को प्राप्त करके भी जो विषयों में रमते हैं, उनके अभाग्य की महिमा तो हम से हो नहीं सकती ।। २४२ ।। चौथा छन्द इसप्रकार है ह्र ( आर्या ) अन्यवशः संसारी मुनिवेषधरोपि दुःखभाङनित्यम् । स्ववशो जीवन्मुक्तः किंचिन्यूनो जिनेश्वरादेषः । । २४३ ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११८१ 49 गाथा १४३ : निश्चय परमावश्यक अधिकार ९७ ( ताटंक ) मुनि होकर भी अरे अन्यवश संसारी है, दुखमय है। और स्वजन सुखी मुक्त रे बस जिनवर से कुछ कम है ।। २४३ ॥ जो जीव अन्यवश है, वह भले ही मुनिवेश धारी हो, तथापि संसारी है, संसार में भटकनेवाला है; सदा ही दुखी है, दुःख भोगनेवाला है और जो जीव स्ववश है, वह जीवन्मुक्त है; जिनेन्द्र भगवान से थोड़ा ही कम है, एक प्रकार से जिनेन्द्र समान ही है । इस छन्द का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "ज्ञानस्वरूप में लीनता की दृष्टिपूर्वक वीतरागतारूप स्ववश रहनेवाला जीवन्मुक्त है । ' बाह्यपदार्थों के त्याग करनेवाले को लोक भी त्यागी कहता है और वह स्वयं भी अपने को त्यागी मानता है। ऐसा होने पर भी वह पुण्यादि विकार से लाभ मानता है। अतः उसने किसी भी प्रकार संसार का त्याग नहीं किया। उसने तो सभी मिथ्यात्वरूपी अनंत संसार को भले प्रकार पकड़ रखा है। अतः वह मुनिवेषधारी जीव बाह्य में व्रत - तप आदि करते हुए भी सदा दुःख भोगनेवाला संसारी है और चैतन्यस्वरूप सहजानंद के आश्रय से ही लाभ माननेवाले अन्तर्लीन पुरुष जिनेश्वर से किंचित् न्यून हैं, वे वीतरागचारित्र के कारण जिनेश्वरपद अर्थात् पूर्ण वीतरागतापूर्वक शीघ्र ही केवलज्ञान प्राप्त करनेवाले हैं। तात्पर्य यह है कि उनके मोक्ष निकट है। वीतरागी श्रद्धा अपेक्षा तो वह पूर्ण जिन है और चारित्र में आंशिक जिन है, पूर्णता के सन्मुख है। यहाँ मोक्ष के साक्षात् कारणस्वरूप निश्चय चारित्र की मुख्यता की अपेक्षा वर्णन है, अपूर्णज्ञान की अपेक्षा नहीं । २" इस छन्द में निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए एकदम साफ शब्दों में कह दिया गया है कि जो जीव अन्यवश हैं; वे भले मुनिवेशधारी हों तो भी संसारी हैं, संसार समुद्र में गोता लगानेवाले हैं और जो जीव स्ववश हैं; वे जीवन्मुक्त हैं। वे जिनेन्द्र भगवान के समान ही हैं; बस जिनेन्द्र भगवान १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १९८१ २. वही, पृष्ठ १९८२
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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