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________________ ९४ नियमसार अनुशीलन कि जिस जीव ने पहले तो वैरागी होकर राजपाट, हाथी, घोड़ा, महल, मकानादि समस्त परद्रव्यों को, यहाँ तक कि घास की झोंपड़ी को भी छोड़कर मुनिदशा अंगीकार कर ली है; और बाद में मुनि - अवस्था में 'यह मेरा अनुपम घर' इसप्रकार मोह से (मठादि में) ममता करता है। तात्पर्य यह है कि उसके आत्मवश ऐसा आवश्यक कार्य नहीं है। आचार्य कहते हैं कि अरे! तेरी ऋद्धि तो तेरे अन्दर में है, मकान आदि में तेरी ऋद्धि नहीं है । " इस छन्द में आश्चर्य व्यक्त किया गया है कि जिसने वैराग्यभाव से समस्त परिग्रह का त्याग कर नग्न दिगम्बर दशा स्वीकार की; वह उत्कृष्ट पद प्रतिष्ठित होने पर भी वे मठ-मन्दिरादि में एकत्व-ममत्व करते हैं। यह सब कलयुग का ही माहात्म्य है ॥ २४०॥ दूसरा छन्द इसप्रकार है ह्र ( शार्दूलविक्रीडित ) कोपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहितः सद्धर्मरक्षामणिः । सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनदेवैश्च संपूज्यते मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः ।। २४१ ।। ( ताटंक ) ग्रन्थ रहित निग्रंथ पाप बन दहें पुजें इस भूतल में । सत्यधर्म के रक्षामणि मुनि विरहित मिथ्यामल कलि में || २४१ || कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्व आदि कीचड़ से रहित सद्धर्मरूपी रक्षामणि के समान समर्थ मुनिपद धारण करता है, जिसने सभी प्रकार के परिग्रहों को छोड़ा है और जो पापरूपी वन को जलानेवाली अग्नि के समान है; ऐसे वे मुनिराज इस कलयुग में भी सम्पूर्ण भूतल में और देवलोक के देवों से भी पूजे जाते हैं। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११७८-११७९ 48 गाथा १४३ : निश्चय परमावश्यक अधिकार " पंचमकाल में कहीं कोई भाग्यशाली सत्पुरुषार्थी जीव मिथ्यात्व आदि मलरहित निर्विकल्प आत्मदशारूप आवश्यक को अंगीकार करता है, वह सत्यार्थ चिदानंद में जागृत रहता हुआ स्वयं ही स्वाश्रित वीतराग धर्म की मिथ्याभावों से रक्षा करने में समर्थ होता है ह्न ऐसे वीतरागी भावलिंगी मुनिराजों को ही यहाँ सद्धर्मरक्षामणि कहा गया है। ' जिन्होंने सर्व परिग्रहों के विस्तार को छोड़ा है, जिनके पर के ग्रहणत्यागरहित अपने ज्ञानमात्र स्वभाव के भानपूर्वक वस्त्र पात्रादि के त्यागपूर्वक शरीरमात्र परिग्रह है। पीछी-कमण्डल भी उपचरित परिग्रह है। संयमहेतु शरीर संबंधी आहार-विहार की अपेक्षा देहमात्र परिग्रह है और जो पुण्य-पापरूपी महाभयंकर जंगल को जलानेवाली अग्नि है अर्थात् वे मुनिराज चैतन्य में ऐसे एकाग्र हो रहे हैं कि उन्हें विभाव की उत्पत्ति ही नहीं होती। ह्र ऐसे मुनिराज को इस समय मनुष्य लोक में तो पूज्यता है ही, वे देवलोक में भी देवों द्वारा भलेप्रकार पूज्य हैं अर्थात् वे स्वर्ग में जाकर महर्द्धिकदेव का पद प्राप्त करते हैं । " इस कलश में यही कहा गया है कि यद्यपि आत्मानुभवी स्ववश मुनिराजों के दर्शन सुलभ नहीं हैं; तथापि ऐसा भी नहीं है कि उनके दर्शन असंभव हों । उनका अस्तित्व आज भी संभव है और पंचमकाल के अन्त तक रहेगा। दुर्भाग्य से यदि आपको आज सच्चे मुनिराजों के दर्शन उपलब्ध नहीं हैं तो इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि इस काल में सच्चे मुनिराजों का अस्तित्व ही संभव नहीं है; क्योंकि शास्त्रों के अनुसार उनका अस्तित्व पंचमकाल के अन्त तक रहेगा ।। २४१ ।। तीसरा छन्द इसप्रकार है ह्न ( शिखरिणी ) तपस्या लोकेस्मिन्निखिलसुधियां प्राणदयिता । नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम् १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११७९-११८० २. वही, पृष्ठ ११८० ९५
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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