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________________ नियमसार अनुशीलन इसप्रकार शुद्धोपयोग को प्राप्त करके यह आत्मा स्वयं धर्मरूप परिणमित होता हुआ नित्यानंद के प्रसार से सरस आत्मतत्त्व में लीन होकर, अत्यन्त अविचलता के कारण दैदीप्यमान ज्योतिर्मय और सहजरूप से विलसित स्वभाव से प्रकाशित रत्नदीपक की भाँति निष्कंप प्रकाशमय शोभा को प्राप्त करता है। घी या तेल से जलनेवाले दीपक की लों वायु के संचरण से कांपती रहती है और यदि वायु थोड़ी-बहुत भी तेज चले तो बुझ जाती है; परन्तु रत्नदीपक में न तो घी या तेल की जरूरत है और न वह वायु के प्रचंड वेग से काँपता ही है। जब वह कांपता भी नहीं तो फिर बुझने का प्रश्न नहीं उठता। यही कारण है कि यहाँ ज्ञानानन्दज्योति की उपमा रत्नदीपक से दी गई है।क्षायोपशमिक ज्ञान और आनन्द: तेल के दीपक के समान अस्थिर रहते हैं, अनित्य होते हैं और क्षणभंगुर होते हैं; किन्तु क्षायिकज्ञान और क्षायिक आनन्द: रत्नदीपक के समान अकंप चिरस्थाई होते हैं। शुद्धोपयोग के प्रसाद से होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख अकंप चिरस्थाई होने से परम उपादेय हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “व्यवहाररत्नत्रय पुण्यास्रव है, वह पाप से बचने के लिए साधकदशा में होता है; परन्तु बंध का कारण होने से उसके आश्रय से मोक्षमार्ग नहीं होता । अरागी पूर्णस्वभाव का अवलम्बन ही एकमात्र मोक्षमार्ग है, वही परमावश्यक है। निर्विकल्प निज ज्ञानानन्द में अरागदशारूप एकाग्रता ही निश्चय आवश्यक है। कर्मक्षय में कुशल शुद्धोपयोगरूप मोक्ष का उपाय त्रिकाल एक ही है और वह है, अपनी आत्मा में लीन रहना। अतः मैं आत्मा में लीनतापूर्वक शीघ्र ही अद्भुत निर्विकल्प सुख को प्राप्त करता हूँ, प्रगट करता हूँ। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११६१ गाथा १४१ : निश्चय परमावश्यक अधिकार आत्मा का स्वभाव आत्मा में है, किसी अन्य पदार्थ में नहीं है। आत्मा का धर्म आत्मा में ही होता है ह्र यह नियत/पक्की मर्यादा है अर्थात् किसी देवादि परद्रव्य के द्वारा नहीं होता, पर के अवलम्बन से नहीं होता। किसी सम्मेदशिखरादि तीर्थक्षेत्र से, कल्याणक आदि काल से नहीं होता और व्यवहाररत्नत्रयरूप व्रतादि के शुभभाव से आत्मधर्म अर्थात् मोक्षमार्ग नहीं होता। तीन काल तीन लोक में स्वाश्रय से ही/ अरागी निश्चय रत्नत्रय से ही आत्मधर्म होता है ह्र ऐसा दृढनिश्चय और एकाग्रपरिणति साधकदशा में होती है। वहाँ शुभराग के समय परद्रव्य के प्रति झुकाव अर्थात् व्यवहारतीर्थ, व्यवहार पूजा-भक्ति आदि होते हैं; वे व्यवहार हैं। सर्वत्र राग का निषेध करनेवाली अरागदृष्टि सहित राग की मंदतापूर्वक सम्मेदशिखरादि तीर्थक्षेत्र की वंदना के भाव को व्यवहार वन्दना आवश्यक कर्म कहा जाता है। इसीप्रकार छहों आवश्यकों के बारे में समझ लेना चाहिए। आत्मा से ही आत्मा का कल्याण होता है ह यह त्रिकाल अबाधित नियम है; परसे कहना यह तो घी के घड़े की भाँति निमित्त मात्र कथन है, व्यवहार है।" ____ इसप्रकार इस कलश में निष्कम्प रत्नदीपक के उदाहरण के माध्यम से यही कहा गया है कि अपने त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला शुद्धोपयोग ही निश्चय परम आवश्यक है।।६६।। इसी बात को स्पष्ट करते हुए टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (मंदाक्रांता) आत्मन्युच्चैर्भवति नियतं सच्चिदानन्दमूर्ती धर्मः साक्षात् स्ववशजनितावश्यककर्मात्मकोऽयम् । १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११६२-११६३
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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