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________________ नियमसार अनुशीलन सोऽयं कर्मक्षयकरपटुर्निर्वृतेरेकमार्गः तेनैवाहं किमपि तरसा यामि शं निर्विकल्पम् ।।२३८।। (रोला) जो सत् चित् आनन्दमयी निज शुद्धातम में। रत होने से अरेस्ववशताजन्य कर्म हो। वह आवश्यकपरम करम ही मुक्तिमार्ग है।। उससे ही मैं निर्विकल्प सुख को पाता हूँ||२३८|| स्ववशजनित अर्थात् अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न आवश्यक कर्मरूप यह साक्षात् धर्म, सच्चिदानन्द की मूर्ति आत्मा में निश्चित ही अतिशयरूप से होता है। कर्मों के क्षय करने में कुशल यह धर्म, निवृत्तिरूप एक मार्ग है, मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। उससे ही मैं शीघ्र ही अद्भुत निर्विकल्प सुख को प्राप्त होता हूँ। इसप्रकार इस कलश में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि सच्चिदानन्दमयी निज शुद्धात्मा के ज्ञान-दर्शनपूर्वक होनेवाली आत्मलीनता ही निश्चय परम आवश्यक कर्म है, साक्षात् धर्म है; उससे ही अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। निज शुद्धात्मा के आश्रय से अर्थात् निज आत्मा में अपनापन स्थापित करने से, उसे ही निजरूप जानने से और उसी में एकाग्र हो जाने से, जम जाने से, रम जाने से उत्पन्न होनेवाले निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय ही मुक्ति का एकमात्र साक्षात् मार्ग है, साक्षात् मुक्ति का मार्ग है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। अत: सभी आत्मार्थियों का एकमात्र कर्त्तव्य शुद्धात्मा की उपलब्धि ही है, उसे प्राप्त करने का प्रयास करना ही है ।।२३८|| नियमसार गाथा १४२ निश्चय परमावश्यकाधिकार की पहली गाथा में निश्चय परम आवश्यक कर्म की सामान्य चर्चा करने के उपरान्त अब इस दूसरी गाथा में उसका व्युत्पत्तिजन्य अर्थ बताते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोद्धव्वा । जुत्ति त्ति उवाअंति य णिरवयवो होदि णिजुत्ती ।।१४२।। (हरिगीत) जो किसी के वश नहीं वह अवश उसके कर्म को। कहे आवश्यक वही है युक्ति मुक्ति उपाय की॥१४२|| जो अन्य के वश नहीं है, वह अवश है और अवश का कर्म आवश्यक है ह ऐसा जानना चाहिए। यह अशरीरी होने की युक्ति है, उपाय है; इससे जीव अशरीरी होता है ह्र ऐसी निरुक्ति है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यहाँ अवश अर्थात् स्ववश-स्वाधीन परमजिन योगीश्वर को परम आवश्यक कर्म अवश्य होता है ह्र ऐसा कहा है। अपने आत्मा को चारों ओर से ग्रहण करनेवाले जिस आत्मा को स्वात्मपरिग्रह के अतिरिक्त अन्य किसी परपदार्थ के वश नहीं होने से अवश कहा जाता है; उस अवश परमजिनयोगीश्वर को निश्चय धर्मध्यान रूप परमावश्यक कर्म अवश्य होता है तू ऐसा जानना। वह परम आवश्यक कर्म निरवयवपने (मुक्त होने) का उपाय है, युक्ति है। अवयव अर्थात् काय (शरीर)। काय का अभाव ही अवयव का अभाव है, निरवयवपना है। तात्पर्य यह है कि परद्रव्यों के अवश जीव निरवयव है, अकाय है ह्र इसप्रकार निरुक्ति है, व्युत्पत्ति है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र अपने में अपनापन आनन्द का जनक है, परायों में अपनापन आपदाओं का घर है: यही कारण है कि अपने में अपनापन ही साक्षात् धर्म है और परायों में अपनापन महा अधर्म है। ह्र आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-४६
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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