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________________ ८२ नियमसार अनुशीलन “यहाँ स्ववश को निश्चय आवश्यक कर्म निरन्तर होता है ह्र ऐसा कहा गया है। विधि के अनुसार परमजिनमार्ग के आचरण में कुशल जो जीव निरन्तर अन्तर्मुखता के कारण अनन्यवश है, अन्य के वश नहीं है, साक्षात् स्ववश है; व्यवहारिक क्रिया के प्रपंच से पराङ्गमुख उस जीव को अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले निश्चय धर्मध्यानरूप परम आवश्यक कर्म होता है। परम तपश्चरण में निरंतर लीन रहनेवाले परमजिनयोगीश्वर ऐसा कहते हैं। दूसरी बात यह है कि सम्पूर्ण कर्मों के नाश का हेतु, त्रिगुप्तिगुप्त परमसमाधि लक्षणवाला जो परमयोग है; वह ही साक्षात् मोक्ष का कारण होने से निवृत्ति मार्ग है, मुक्ति का कारण है। ऐसी निरुक्ति अर्थात् व्युत्पत्ति है।" ___आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान का जो शुभविकल्प साधकदशा में आता है; इन छह व्यवहार आवश्यकों से विरुद्ध यह शुद्ध निश्चय आवश्यक है। व्यवहार आवश्यक पुण्यबंध का कारण है और ज्ञानमात्र आत्मा में लीनतारूप निश्चय आवश्यक मोक्ष का कारण है; क्योंकि वास्तव में मोक्षमार्ग तो अरागी एकरूप है और व्यवहाररूप छह आवश्यक से प्रतिपक्ष/विरुद्ध है।' साधक जीव को कमजोरी के कारण व्यवहार के विकल्प होते हैं, वे जानने योग्य हैं, ज्ञेय हैं; आदर करने योग्य नहीं हैं, उपादेय नहीं हैं। ___मोक्षमार्ग वीतरागभावस्वरूप है। शुभरागरूप सामायिक, स्तुति, वंदना, कायोत्सर्ग आदि बीच में आते हैं; परन्तु वे मोक्ष के साधन नहीं है। मैं शरीरादि की क्रिया का कर्त्ता नहीं हूँ। पुण्यादि व्यवहार की रुचि रहित हूँ। ह्र ऐसी निर्मल दृष्टि सहित श्रद्धा-ज्ञान-लीनतारूप वीतराग १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११५९ गाथा १४१ : निश्चय परमावश्यक अधिकार मार्ग के आचरण में/ज्ञानानन्द में एकाग्र जीव सदा ही अतमुख होने से अन्यवश नहीं है, परन्तु स्ववश है। धर्मीजीव स्वाधीन सुखमय है। पराधीनदृष्टिवाले को कभी भी सुख नहीं है।' ___ उक्त गाथा और उसकी टीका का भाव इतना ही है कि अवश का भाव आवश्यक है और पर के वश नहीं होना ही अवश है। तात्पर्य यह है कि स्ववश अर्थात् स्वाधीन वृत्ति और प्रवृत्ति ही निश्चय परम आवश्यक है। मुनिराजों के होनेवाले स्तुति, वंदना आदि व्यवहार परम आवश्यक वास्तविक आवश्यक नहीं; क्योंकि वे पुण्यबंध के कारण हैं। ___ मुक्ति का कारण तो एकमात्र त्रिगुप्ति गुप्त परम समाधि लक्षणवाला परमयोग ही है और वही निश्चय परम आवश्यक है।।१४१।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्रीमद् अमृतचंद्राचार्य के द्वारा भी कहा गया है ह्र ऐसा कहकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (मंदाक्रांता) आत्मा धर्म:स्वयमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोगं नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय । प्राप्स्यत्युच्चैरविचलतया नि:प्रकम्पप्रकाशा स्फूर्जज्ज्योति: सहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ।।६६ ।। (मनहरण) विलीन मोह-राग-द्वेष मेघ चहुंओर के, चेतना के गुणगण कहाँ तक बरखानिये। अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम, विलसत सहजानन्द मय जानिये॥ नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन, शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये। नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आतमा, स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ||६६|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११६० २. प्रवचनसार, कलश५
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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