SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार गाथा १३१-१३२ अब इन दो गाथाओं में नोकषायों को छोड़नेवाले जीव सदा सामायिक में रहते हैं ह्र यह बताते हैं। गाथाएँ मूलतः इसप्रकार हैं ह्न जो दु हस्सं रई सोगं अरतिं वजेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३१।। जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं वजेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३२।। (हरिगीत ) जो रहित हैं नित रति-अरति उपहास अर शोकादि से। उन वीतरागी संत को जिन कहें सामायिक सदा।।१३१|| जो जुगुप्सा भय वेद विरहित नित्य निज में रत रहें। उन वीतरागी सन्त को जिन कहें सामायिक सदा।।१३२।। जो मुनिराज हास्य, रति, अरति, शोक को नित्य छोड़ता है; उसे सामायिक सदा वर्तती है। ह्र ऐसा केवली के शासन में कहा है। जो जुगुप्सा, भय और स्त्रीवेद, पुरुषवेद व नपुंसकवेदों को नित्य छोड़ता है; उसे सामायिक सदा होती है। ह ऐसा केवली के शासन में कहा है। इन गाथाओं का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र __“यह नौ नोकषायों को जीत लेने से प्राप्त होनेवाले सामायिकचारित्र का कथन है। मोहनीयकर्म से उत्पन्न होनेवाले स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसंकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा नामक नौ नोकषायों से होनेवाले कलंकरूपी कीचड़ को अर्थात् समस्त विकारसमूह को परमसमाधि के बल से जो निश्चयरत्नत्रयधारी मुनिराज छोड़ते हैं; उन्हें केवली भगवान के शासन से सिद्ध हुआ परमसामयिक नामक व्रत शाश्वतरूप है ह्र ऐसा इन दो गाथाओं में कहा गया है।" गाथा १३१-१३२ : परमसमाधि अधिकार आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यह नोकषाय को जीत लेने से प्राप्त होनेवाले सामायिक चारित्र के स्वरूप का कथन है। जगतदिवाकर, त्रिलोकीनाथ, तीर्थंकर परमात्मा ने सामायिक का स्वरूप ह ऐसा कहा है कि 'हास्यादि सभी विकारीभाव मेरे स्वरूप नहीं है' सर्वप्रथम ह्र ऐसा निर्णय करके स्वरूप में स्थिर हो, तो हास्यादि विकारों का अभाव होकर यथार्थ सामायिक प्रगट हो; क्योंकि यदि हास्यादि भावों को आत्मा से पृथक न जाने तो उनका कभी भी अभाव नहीं होता। वास्तव में प्रथम तो वस्तुस्वरूप का यथार्थ भान हो, पश्चात् स्वरूप में स्थिरतापूर्वक कषायभावों को उत्पन्न ही न होने दे, उसे ही सामायिकव्रत होता है। इसप्रकार सहज चैतन्य की श्रद्धारूप दर्शन-समाधि से पहले विकार रहित स्वरूप का निर्णय करना ह्र दर्शनसामायिक है और उसके बाद उसमें लीनतारूप परमसमाधि से निश्चय रत्नत्रयात्मक परम तपोधन समस्त कषायों को छोड़ते हैं, तब परमसामायिक नाम का निश्चयचारित्र होता है ह्र यह सामायिक मोक्ष का कारण है। केवलीभगवान के मत में सिद्ध सामायिक का ऐसा अलौकिक और अद्भुत स्वरूप है। पर्याय होते हुए भी सामायिक को यहाँ शाश्वत कहा है, क्योंकि वह प्रगट होने के बाद ठेठ मोक्ष तक साथ रहता है।" उक्त दो गाथाओं में हास्यादि नौ नोकषायों के अभाव से होनेवाली शुद्धपरिणति को सामायिक व्रत अर्थात् परमसमाधि कहा गया है।।१३१-१३२।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जो इस प्रकार है ह्र 20 १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०७९ २. वही, पृष्ठ १०७९ ३. वही, पृष्ठ १०८०
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy