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________________ नियमसार अनुशीलन पुण्य-पापरूपी धुएँ के कारण मूल चैतन्य वस्तु दिखाई नहीं देती; परन्तु चैतन्य का तेज ऐसा होता है कि उसमें पुण्य-पापरूपी धुआँ होता ही नहीं है। ऐसे त्रिकाली महातेज स्वरूप आत्मा में एकाग्र होने पर पर्याय में भी पुण्य-पापरूपी धुएँ की उत्पत्ति ही नहीं होती। आत्मा मुक्ति का मूल है, निरुपाधि है, सच्चे आनन्द को देनेवाला है । जब जीव ऐसे आत्मा में स्थिर होता है, तब वह स्वयं ही महाआनन्द सुख को प्राप्त होता है, वह सुख कहीं बाहर से नहीं आता।' अपने चिदानन्द भगवान को श्रद्धा-ज्ञान में लेकर निर्मल परिणति द्वारा उसकी पूजा करना अर्थात् उसमें एकाग्रता करना ही सामायिक है और वही मुक्ति का कारण है। " ३६ इस छंद में स्वतः सिद्ध ज्ञान को मोहांधकार का नाश करनेवाला, मुक्तिमार्ग का मूल, सच्चा सुख प्राप्त करानेवाला कहा गया है। संसारदुख से बचने के लिए उस ज्ञान की आराधना करने की बात कही गयी है ।। २१६ ।। तीसरा छन्द इसप्रकार है ( शिखरिणी ) अयं जीवो जीवत्यघकुलवशात् संसृतिवधूधवत्वं संप्राप्य स्मरजनितसौख्याकुलमतिः । क्वचिद् भव्यत्वेन व्रजति तरसा निर्वृतिसुखं तदेकं संत्यक्त्वा पुनरपि स सिद्धो न चलति ।। २१७ ।। ( हरिगीत ) आकुलित होकर जी रहा जिय अघों के समुदाय से । भववधू का पति बनकर काम सुख अभिलाष से ॥ भव्यत्व द्वारा मुक्ति सुख वह प्राप्त करता है कभी । अनूपम सिद्धत्वसुख से फिर चलित होता नहीं || २१७ || यह जीव शुभाशुभकर्मों के वश संसाररूप स्त्री का पति बनकर कामजनित सुख के लिए आकुलित होकर जी रहा है। यह जीव कभी १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०७३ २. वही, पृष्ठ १०७४ ३. वही, पृष्ठ १०७४ 19 गाथा १३० : परमसमाधि अधिकार ३७ भव्यत्व शक्ति के द्वारा निवृत्ति (मुक्ति) सुख को प्राप्त करता है; उसके बाद उक्त सिद्धदशा में प्राप्त होनेवाले सुख से कभी वंचित नहीं होता । तात्पर्य यह है कि सिद्धदशा के सुख में रंचमात्र भी आकुलता नहीं है, अतः उसमें यह जीव सदा तृप्त रहता है, अतृप्त होकर आकुलित नहीं होता । स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “जो ज्ञानानन्द चैतन्य का स्वामी नहीं होता, वह अपने को पुण्यपाप स्वरूप मानकर संसाररूपी स्त्री का स्वामी होता है। तात्पर्य यह है कि वह संसार में विषयाकुल होकर परिभ्रमण करता है। अपने चैतन्यस्वभाव को चूककर विषयभोग जनित सुख के लिए आकुलित होकर जीता है। जो एक बार उसे छोड़कर चैतन्यस्वरूप की दृष्टि करे और उसी में ठहर जाये, तो मुक्तिरूपी स्त्री का स्वामी हो जाता है; तथा फिर वह सादि अनन्तकाल तक उससे कभी भी च्युत नहीं होता है। इसप्रकार शुभ-अशुभ दोनों का त्याग करके अपने चैतन्यस्वभाव में स्थिर होना ही सामायिक है। सम्पूर्ण जगत से उदासीन होकर स्वभाव में ही मेरा सुख है ह्न ऐसी स्वयं की भव्यता द्वारा ह्न योग्यता द्वारा जीव शीघ्र मोक्ष को सुख पाता है। जो जीव अनादिकाल से रखड़ रहा है। वही जीव अपनी पात्रता से ह्न स्वभाव-सन्मुख पुरुषार्थ से शीघ्र मोक्षसुख प्राप्त करता है। सामायिक का ऐसा उत्कृष्ट फल मोक्ष है। अपने भव्यत्व द्वारा ही जीव मोक्ष प्राप्त करता है ह्र ऐसा कहा; परन्तु ऐसा नहीं कहा कि कर्म के अभाव से या निमित्त से मोक्ष प्राप्त करता है। " इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि यद्यपि यह जीव अनादिकाल से सांसारिक सुख प्राप्त करने के लिए आकुलित हो रहा है; तथापि कभी भव्यत्वशक्ति के विकास से काललब्धि आने पर सच्चे सुख को प्राप्त करता है तो फिर अनंतकाल तक अत्यन्त तृप्त रहता हुआ स्वयं में समाधिस्थ रहता है । । २१७ ॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०७५ २. वही, पृष्ठ १०७६
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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