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________________ २४५ नियमसार गाथा १७५ विगत गाथाओं में ज्ञानी को बंध नहीं होता ह्र यह बताया है और अब इस गाथा में केवली भगवान के भावमन नहीं होता ह यह बतलाते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है । ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। तम्हा ण होइ बंधो साक्खटुं मोहणीयस्स ।।१७५।। (हरिगीत) खड़े रहना बैठना चलना न ईहापूर्वक। बंधन नहीं अर मोहवश संसारी बंधन में पड़े ।।१७५|| केवली भगवान के खड़े रहना, बैठना और विहार करना इच्छापूर्वक नहीं होते; इसलिए उन्हें बंध नहीं होता। मोहनीयवश संसारी जीव को साक्षार्थ (इन्द्रिय विषय सहित) होने से बंध होता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "भट्टारक केवली भगवान के भावमन नहीं होता ह्र यहाँ यह बताया जा रहा है। अरहंत भगवान के योग्य परमलक्ष्मी से विराजमान परम वीतराग सर्वज्ञदेव केवली भगवान का कुछ भी वर्तन इच्छापूर्वक नहीं होता । मनप्रवृत्ति के अभाव होने से वे कुछ भी नहीं चाहते । अथवा वे इच्छा पूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते भी नहीं हैं और न इच्छापूर्वक विहार ही करते हैं; क्योंकि 'अमनस्का: केवलिनः ह्र केवली भगवान मनरहित होते हैं ह्र ये शास्त्र का वचन है। इसलिए उन तीर्थंकर परमदेव को द्रव्य-भावरूप चार प्रकार का बंध नहीं होता। वह चार प्रकार का बंध क्यों होता है, किसे होता है ? मोहनीय कर्म के विलास से वह बंध होता है तथा इन्द्रियों से सहित संसारी जीवों को मोहनीय के वश इन्द्रियविषयरूप प्रयोजन से वह बंध होता है।" गाथा १७५ : शुद्धोपयोगाधिकार आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___“त्रिलोकीनाथ तीर्थंकरदेव को खड़े रहने का विकल्प नहीं होता है। जिस जगह ठहरना हो, वहाँ अपने आप ही देह रुक जाती है। भगवान को रुकने की इच्छा नहीं होती है। जहाँ पुण्यात्मा जीव रहते हैं, वहाँ स्वयमेव भगवान की देह ठहर जाती है। इन्द्र वहाँ समवशरण की रचना करता है। तत्पश्चात् भगवान वहाँ पद्मासन में विराजते हैं। 'यहाँ के लोग पात्रजीव हैं; अतः मैं यहाँ ठहर जाऊँ' - ऐसा राग भगवान को नहीं है। __ यहाँ केवली भट्टारक के मनरहित होने की बात कही गई है। साधकदशा में राग होता है; वहाँ भावमन होता है। केवलज्ञानरूपी सूर्य के इच्छा नहीं होने से भावमन नहीं है। भगवान के मन-प्रवृत्ति का अभाव होने से वे इच्छापूर्वक उठतेबैठते नहीं हैं तथा वे विहारादिक भी नहीं करते। भगवान ने यज्ञ बन्द कराये, स्त्रियों को हक दिलवाये' - ऐसा लोग कहते हैं; पर यह बात गलत है; क्योंकि भगवान को तो किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं होती। ___ 'मैं धर्मतीर्थ की स्थापना करूँ' - ऐसा विकल्प भी अर्हत को नहीं होता है। वे समवशरण में बैठकर तीर्थ को नमस्कार करते हैं, यह बात भी गलत है। वे तो सिद्ध को भी नमस्कार नहीं करते हैं; क्योंकि उनके इच्छा नहीं है। तीर्थंकर दीक्षा लेते समय सिद्धों को नमस्कार करते हैं; इसके अलावा छद्मस्थ दशा में भी तीर्थंकर किसी को नमस्कार नहीं करते। 123 १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४५४ २. वही, पृष्ठ १४५४ ३. वही, पृष्ठ १४५५ ४. वही, पृष्ठ १४५५
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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