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________________ २४७ २४६ नियमसार अनुशीलन तीर्थंकर भगवान का सैकड़ों गाँवों में विहार होता है; पर वह इच्छापूर्वक नहीं होता । अज्ञानी कहते हैं कि भगवान किसी को सम्बोधने गये, तो यह बात गलत है। अज्ञानी मानते हैं कि महावीर भगवान को रोग हुआ तथा बाद में दवा लेने से मिट गया, यह सभी कल्पित बातें हैं। उन तीर्थंकर परमदेव को द्रव्य-भावस्वरूप चतुर्विध बंध नहीं होता। ____ अक्षार्थ अर्थात् इन्द्रियार्थ - अर्थात् इन्द्रिय के विषय । मोहनीय के वशीभूत होकर संसारी जीव इन्द्रियविषयों का सेवन करते हैं, उन्हें ही बंध होता है। मोह के अभाव से केवली को बंध नहीं होता।" इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि केवली भगवान के विहारादि इच्छापूर्वक नहीं होते; अतः उनको बंध भी नहीं होता। प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग ह्न ये चार प्रकार के बंध मोहनीय कर्म के उदय से होनेवाले मोह-राग-द्वेष के कारण संसारी जीवों को होते हैं। इसके बाद टीकाकार मुनिराज प्रवचनसार में कहा गया है' हू ऐसा कहकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र ठाणणिसेजविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं। अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं ।।८५।।' (हरिगीत) यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों। हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरहंत के||८५|| उन अरहंत भगवंतों के उस समय खड़े रहना, बैठना, विहार करना और धर्मोपदेश करना आदि क्रियायें स्त्रियों के मायाचार की भांति स्वाभाविक ही हैं, प्रयत्न बिना ही होती हैं। गाथा १७५ : शुद्धोपयोगाधिकार आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "केवली की विहारादि क्रिया की सहजता बताने के लिए आचार्य कुन्दकुन्ददेव स्त्री का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि स्त्री का भव पूर्व में किये गये मायाचार से मिलता है। कुटिलता के भाव करने से स्त्रीवेद बंधता है।' जिसप्रकार स्त्रियों के वाणी व शरीर संबंधी अनेक चेष्टायें ऐसी होती हैं कि जो उनके भी ख्याल में नहीं आ पाती हैं; इसीप्रकार केवली को इच्छा बिना विहार, उपदेशादि होते हैं। तथा जिसप्रकार आकाश में बादल गमन करते हैं; तब बिजली पैदा होती है; वह भी स्वाभाविक ही है, उसे कोई इच्छापूर्वक नहीं करता है; इसीप्रकार भगवान को इच्छापूर्वक वर्तन नहीं है; अतः उन्हें बंध भी नहीं है।' प्रवचनसार की उक्त गाथा में भी यही कहा गया है कि जिसप्रकार महिलाओं मेंमायाचार की बहुलता सहजभावसे पायी जाती है; उसीप्रकार केवली भगवान का खड़े रहना, उठना, बैठना और धर्मोपदेश देना आदि क्रियायें बिना प्रयत्न के सहज ही होती हैं। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जो इसप्रकार हैह्र (शार्दूलविक्रीडित ) देवेन्द्रासनकंपकारणमहत्कैवल्यबोधोदये मुक्तिश्रीललनामुखाम्बुजरवे: सद्धर्मरक्षामणेः। सर्वं वर्तनमस्ति चेन्न च मन: सर्वं पुराणस्य तत् सोऽयं नन्वपरिप्रमेयमहिमा पापाटवीपावकः ।।२९२।। (हरिगीत) इन्द्र आसन कंप कारण महत केवलज्ञानमय। शिवप्रियामुखपद्मरवि सद्धर्म के रक्षामणि ।। सर्ववर्तन भले हो पर मन नहीं है सर्वथा। पापाटवीपावक जिनेश्वर अगम्य महिमावंत हैं।।२९२।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४५७ २. वही, पृष्ठ १४५७ . 124 २ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४५५ ३. वही, पृष्ठ १४५६ ५. प्रवचनसार, गाथा ४४ . वही, पृष्ठ १४५५-१४५६ ४. वही, पृष्ठ १४५६
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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