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________________ नियमसार अनुशीलन इन दोनों गाथाओं और उनकी टीका में मात्र इतना ही कहा गया है। कि परिणामपूर्वक और इच्छापूर्वक वचन बंध के कारण होते हैं। केवलज्ञानी की दिव्यध्वनि परिणाम रहित और इच्छा रहित होने के कारण उन्हें बंध नहीं होता ।। १७३ - १७४।। इन गाथाओं की टीका लिखने के उपरान्त टीकाकार मुनिराज तीन छन्द लिखते हैं, जिनमें से पहला छन्द इसप्रकार है ह्र ( मंदाक्रांता ) २४० ईहापूर्वं वचनरचनारूपमत्रास्ति नैव तस्मादेषः प्रकटमहिमा विश्वलोकैकभर्ता । अस्मिन् बंध: कथमिव भवेद् द्रव्यभावात्मकोऽयं मोहाभावान्न खलु निखिलं रागरोषादिजालम् ।। २८९ ।। ( हरिगीत ) ईहापूर्वक वचनरचनारूप न बस इसलिए । प्रकट महिमावंत जिन सब लोक के भरतार हैं ।। निर्मोहता से उन्हें पूरण राग-द्वेषाभाव है । द्रव्य एवं भावमय कुछ बंध होगा किस तरह? ||२८९ || केवली भगवान के इच्छापूर्वक वचनों का अभाव होने से वे प्रगट महिमावंत हैं, समस्त लोक के एकमात्र नाथ हैं। मोह के अभाव के कारण समस्त राग-द्वेष के जाल का अभाव होने से उन्हें द्रव्यबंध और भावबंध कैसे हो सकते हैं ? तात्पर्य यह है कि न तो मोह राग-द्वेषरूप भावबंध होता है और न ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का बंध होता है। इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "केवली भगवान के इच्छा नहीं है; अतः वे महिमावन्त हैं । जहाँ तक इच्छा होती है; वहाँ तक आत्मा पूर्ण महिमावंत नहीं होता । वीतरागता - विज्ञानता की ही पूर्ण महिमा है। भगवान लोक के नाथ हैं। जो जीव सम्यग्ज्ञान का पुरुषार्थ करता है, उसे भगवान निमित्त हैं; अतः वे उसके नाथ कहलाते हैं । वे मिथ्यादृष्टि के नाथ नहीं हैं; परन्तु 121 २४१ गाथा १७३ - १७४ : शुद्धोपयोगाधिकार उपचार से सभी के नाथ कहलाते हैं। ऐसे केवली के मोह का नाश होने से उन्हें द्रव्यबंध और भावबंध नहीं होता । " उक्त छन्द में भी यही कहा गया है कि प्रकट महिमावंत, समस्त लोक के एकमात्र नाथ केवली भगवान के इच्छापूर्वक वचनों का अभाव है। मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण उन केवली भगवान को न तो द्रव्यबंध होता है और न भावबंध होता है ।। २८९ ।। दूसरा छन्द इसप्रकार है ह्र ( मंदाक्रांता ) एको देवस्त्रिभुवनगुरुर्नष्टकर्माष्टकार्धः सद्बोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम् । आरातीये भगवति जिने नैव बंधो न मोक्षः तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूर्च्छना चेतना च ।। २९० ।। ( हरिगीत ) अरे जिनके ज्ञान में सब अर्थ हों त्र्यलोक के । त्रयलोकगुरु चतुकर्मनाशक देव हैं त्र्यलोक के ॥ बंध है न मोक्ष है न मूर्छा न चेतना । वे नित्य निज सामान्य में ही पूर्णतः लवलीन हैं ।। २९० ॥ जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश किया है, जो तीन लोक के गुरु हैं, समस्त लोक और उसमें स्थित पदार्थ समूह जिनके ज्ञान में स्थित हैं; वे जिनेन्द्र भगवान एक ही देव हैं, अन्य कोई नहीं। उन्हें न बंध है, न मोक्ष है, उनमें न तो कोई मूर्च्छा है, न चेतना; क्योंकि उनके द्रव्य सामान्य का आश्रय है। इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “जिनभगवान तीन लोक के गुरु हैं अर्थात् तीन लोक में तो सिद्ध, ज्ञानी और मिथ्यादृष्टि सभी आ गये तथा भगवान से तो सिद्ध बड़े हैं; अतः वे उनके गुरु नहीं हैं और मिथ्यादृष्टि के भी गुरु नहीं हैं, अभव्यों के १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४४७- १४४८
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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