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________________ नियमसार गाथा १७३-१७४ विगत गाथा में यह बताया गया था कि केवली भगवान के इच्छा का अभाव है और अब इन गाथाओं में यह बताया जा रहा है कि इच्छा का अभाव होने से उन्हें बंध नहीं होता। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ह्र परिणामपुव्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होई । परिणामरहियवयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो ।।१७३ ।। ईहापुव्वं वयणं जीवस्स स बंधकारणं होइ । ईहारहियं वयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो । । १७४ ।। ( हरिगीत ) बंध कारण जीव के परिणामपूर्वक वचन हैं। परिणाम विरहित वचन केवलिज्ञानियों को बंधन ॥ १७३ ॥ ईहापूर्वक वचन ही हों बंधकारण जीव को । ईहा रहित हैं वचन केवलिज्ञानियों को बंध न || १७४ ॥ परिणामपूर्वक होनेवाले वचन जीव के बंध के कारण हैं । केवलज्ञा के परिणाम रहित वचन होता है; इसलिए उन्हें वस्तुतः बंध नहीं होता । इच्छापूर्वक वचन जीव के बंध के कारण हैं । केवलज्ञानी को इच्छा रहित वचन होने से उन्हें वस्तुतः बंध नहीं है। ये दोनों गाथायें लगभग एक समान ही हैं। इनमें परस्पर मात्र इतना अन्तर है कि प्रथम गाथा में प्राप्त परिणामपूर्वक वचन के स्थान पर दूसरी गाथा में ईहापूर्वक वचन कर दिया गया है। भाव दोनों का समान ही है। इन गाथाओं के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ वस्तुतः केवलज्ञानी को बंध नहीं होता ह्र यह कहा गया है। सम्यग्ज्ञानी अर्थात् केवलज्ञानी जीव कभी भी स्वबुद्धिपूर्वक अर्थात् 120 गाथा १७३ - १७४ : शुद्धोपयोगाधिकार २३९ स्वमनपरिणामपूर्वक वचन नहीं बोलते; क्योंकि केवली भगवान अमनस्क (मन रहित) होते हैं ह्र ऐसा शास्त्र का वचन है। इसलिए ऐसा समझना चाहिए कि जीवों के मनपरिणतिपूर्वक होनेवाले वचन बंध का कारण होते हैं ह्र ऐसा अर्थ है । केवली भगवान के मनपरिणतिपूर्वक वचन नहीं होते । इसीप्रकार इच्छा सहित जीव को इच्छापूर्वक होनेवाले वचन भी बंध के कारण होते हैं। समस्त लोग हृदयकमल के आह्लाद के कारणभूत, केवली भगवान के मुखारबिन्द से निकली हुई दिव्यध्वनि तो इच्छा रहित है; अतः केवलज्ञानी को बंध नहीं होता। " आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं और उसकी टीका के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यद्यपि ऐसा कहा है कि दिव्यध्वनि केवली के मुखकमल से निकलती है; परन्तु वास्तव में तो भगवान के होंठ हिले बिना, इच्छा बिना सम्पूर्ण शरीर से दिव्यध्वनि निकलती है। यह दिव्यध्वनि सभी जीवों को आनन्द देनेवाली कही गई है; फिर भी जो जीव स्वयं अपनी पर्याय में भेदज्ञान करते हैं, उनको वाणी निमित्त होती है। चूंकि मिथ्यादृष्टि जीव को भेदज्ञान नहीं होता है; अतः उसे दिव्यध्वनि निमित्त भी नहीं है; तथापि दिव्यध्वनि को समस्त लोगों को आनन्ददायिनी कहा जाता है। यहाँ कहा जा रहा है कि मन परिणति केवली के नहीं है; अतः उन्हें बंध भी नहीं होता। 'मन नहीं होने से बंध नहीं होता है' ऐसा कहना गलत है; क्योंकि मन तो एकेन्द्रिय जीव के भी नहीं होता; अतः उसे भी बंध नहीं होना चाहिए; परन्तु ऐसा नहीं है। वहाँ भाव परिणति क्षायोपशम पर्याय तो है ही । उसकी क्षायोपशमिक पर्याय में शरीरादि की एकत्वबुद्धि के परिणाम हैं; अतः वहाँ बंध भी होता है। चिदानन्द के ज्ञानपूर्वक स्वरूपलीन परिणति जिसे प्रगट होती है; उसे राग नहीं होने से बंध नहीं होता । २" १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६३९ २. वही, पृष्ठ ६४०
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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