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________________ जीचाभिगमसूत्रे कषायद्वारे - 'चत्तारि कसाया' चत्वारः क्रोधमानमायालो भाख्याः कपाया देवानां भवन्तीति कषायद्वारम् || संज्ञाद्वारे – 'चचारि सन्ना' चतस्रः - आहार भयमैथुनपरिग्रहाख्याः संज्ञा देवानां भवन्तीति सज्ञाद्वारम् ।। लेश्याद्वारे–छलेस्सा षट् - कृष्णनीलकापोततैजसपद्मशुक्लाख्या लेश्या भवन्ति देवानामिति लेश्याद्वारम् || इन्द्रियद्वारे - 'पंच इदिया' पश्र्च - स्पर्शनरसनत्राणचक्षुः श्रोत्रात्मकानीन्द्रियाणि भर्वान्त देवानामितीन्द्रियद्वारम् || समुद्रघातद्वारे - 'पंच समुग्धाया' पश्च समुद्घाताः देवानां वेदनाकषायमारणान्तिकवैक्रियतैजससमुद्घातसभवादिति समुद्घातद्वारम् ॥ संज्ञिद्वारे — 'सन्नी वि असन्नी वि' ते देवा: संज्ञिनोऽपि भवन्ति अथ चासजिनोऽपि नैरयिकवद् भवन्तीति सज़िद्वारम् ॥ मान, माया और लोभ वेदद्वारे - 'इथिवेया विपुरिसवेया विनो नपुंसकवेया' ते भवन्ति पुरुषवेदका अपि भवन्ति नो नपुंसक वेदका भवन्तीति वेदद्वारम् || कषाय द्वार में - " चत्तारि कसाया" इन देवों के चारों क्रोध, कपायें होती हैं | संज्ञाद्वार में " चत्तारि सन्ना" इनके आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चागे ही संज्ञाएँ होती हैं । लेश्याद्वार में - "छलेस्सा" इनके कृष्ण, नील, कापोत, तैजस, पद्म, और शुक्ल ये छह लेश्याएँ होती हैं । इन्द्रियद्वार में - इनके "पंच इंदिया" कर्ण-चक्षुघ्राण - रसना - स्पर्श ये पांचों इन्द्रियाँ होती है । समुद्घातद्वार में - इनके "पंच समुग्धाया" पांच-वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय, तैजस - समुद्घात होते हैं । संज्ञिद्वार में ये "सन्नी वि असन्नी वि" सज्ञी भी होते है और असंज्ञी भी होते है अर्थात् कितनेक उत्पत्तिकाल में असज्ञी होते हैं । वेदद्वार में - ये " इत्थियवेया वि पुरिसवेया वि नो नपुंसकवेया" स्त्री वेद वाले भी होते हैं, पुरुष वेद वाले भी होते हैं, पर नपुंसक वेदवाले नहीं होते हैं - ફેર देवा खीवेदका व्यि पर्याप्तिद्वारे - 'पज्जती उषायद्वारभा - "चत्तारि कसाया" ते हेवाने अध षाय १, भाननुषाय २, भायाउषाया 3, मने बोलषाय ४, मा यारे उषायो होय छे, संज्ञाद्वारभां - "चत्तारि सन्ना" તેઓને આહાર સંજ્ઞા, ભયસ'જ્ઞા, મૈથુનસ‘જ્ઞા, અને પરિગ્રહસ ના આ ચારે સ'જ્ઞાએ होय छे बेश्याद्वारमा - "छलेस्सा" तेथेोने पॄष्णुखेश्या, नीससेश्या, अयोतसेश्या, तैक्सबेश्या पद्मवेश्या, अने शुभ्ससेश्या भा छ बेश्या ओ होय छे इन्द्रियद्वारमा तेयोने “पंच इंदिया" - ४.न, यक्षु, धालु-नाई, रसना कलाने स्पर्श या पांय इन्द्रियो होय छे सभुद्घातद्वारभां - पंच "समुग्धाया" वेहना समुद्घात, पुषाय समुद्घात, भारशान्ति સમુદ્ઘાત, વૈક્રિય સમુદ્ઘાત, અને તૈજસ સમુદ્દાત આ પાંચ સમુઘાતા તેને હાય छे, संज्ञिद्वारमा - तेथे "सन्नी वि असन्नी वि" सज्ञी य होय छे, मने असज्ञी पशु होय छे वेद्द्द्वारभां—तेथे "इत्थियवेगा वि पुरिसवेया वि नो नपुसगवेया" स्त्रीवेद्दवाणा પણ હાય છે, પુરૂષવેદવાળા પશુ ડાય છે. પરંતુ નપુંસકવેટ્ટવાળા હાતા નથી.
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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