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________________ ३२२ जीवाभिगमसरे संज्ञिनो नो असजिनोऽपि भवन्ति तत्र नो सजिनो असंज्ञिनः केवलिन इति संज्ञिद्वारम् ।। ____ वेदद्वारे- 'इत्थियावि जाव अवेया वि' स्त्री वेदा अपि यावत् पुरुपवेदा अपि नपुंसकवेदा अपि अवेदका अपि भवन्तीति । तत्र अवेदाः सूक्ष्मसपरायादि गुणस्थानवर्तिन इति वेदद्वारम् ।। पर्याप्तिद्वारे-'पंच पज्जती' पञ्चपर्याप्तयो भवन्ति मनुष्याणां तथा पञ्चापर्याप्तयोऽपि भवन्ति, भाषामन पर्याप्त्योरेकस्बेन विवक्षणादिति पर्याप्तिहारम् ॥ दृष्टिद्वारे- 'तिविहा वि दिट्टी' त्रिविधा अपि दृष्टयो भवन्ति तद्यथा-केचित् सम्यग् दृष्टयः केचिन्मिथ्यादृष्टयः केचित् सम्यमिथ्यादृष्टय इनि दृष्टिद्वारम् ।। भी होते हैं और नोसजी नोअसजी भी होते हैं । नो संज्ञी नो असंजो ऐसा जो कहा गया है वह क्वलियों की अपेक्षा से कहा गया है । वेदद्वार में ये गर्भज मनुष्य "इत्थिवेया विजाव अवेयावि" स्त्री वेदवाले भी होते है, पुरुषवेदवाले भी होते हैं और नपुंसक वेदवाले भी होते है तथा विना वेद के भी होते हैं। वेद का उदय नौवे गुणस्थान तक रहता है दसवें सूक्ष्म संपराय आदि गुणस्थानो में वेद का उदय नहीं रहता है इसलिये यहां अवेदक भी होते हैं ऐसा कहा गया है "पर्याप्तिद्वार में ये गर्भज मनुष्य 'पंच पन्जत्ती' पांच पर्याप्तिवाले होते है तथा पांच अपर्याप्ति वाले भी होते हैं । पर्याप्तियां यद्यपि छह प्रकार की होती है, पर यहां जो पांच पर्याप्तियों वाले होते है-ऐसा जो कहा गया है वह भापा और मनपर्याप्ति में एक साथ बांधनेमें एकता है इस विवक्षा से कहा गया है। दृष्टिद्वार में ये गर्भज मनुष्य "तिविहा वि दिट्ठी” तीनो प्रकार के दृष्टि वाले होते हैं जैसे कोई २ सम्यग्दृष्टि भी होते हैं कोई २ मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और कोई २ मिश्रदृष्टि भी होते ”િ આ ગર્ભજ મનુષ્ય સંની પણ હોય છે, ને સંસી પણ હોય છે અને તે અસ ગ્રી પણ હોય છે. ને સંડી અને નોઅસંની એવું કથન કહ્યું છે, તે કેવલિયોની અપેક્ષાએ કહેલ છે वारमा-मा आम मनुष्य "इथिवेया वि जाव अवेया वि' सीवेहवाणा ५५ डाय छे. પુરૂદવાળા પણ હોય છે અને નપુંસક વેદવાળા પણ હોય છે તથા વેદ વિનાના પણ હોય છે. વેદનો ઉદય નવમા ગુણસ્થાન સુધી રહે છે. દસમા સૂમસંપરાય વિગેરે ગુણસ્થાનમાં વેદને ઉદય રહેતું નથી, તેથી અહિયાં અવેદન પણ હોય છે. એવું કહેવામાં આવેલ છે. यांतिद्वारमा म भनुष्य "पंच पजत्ती' पाय पर्याप्तिका डाय छे. मने પાચ અપર્યાપ્તિવાળા પણ હોય છે જે કે પર્યાપ્ત છ પ્રકારની હોય છે, પરંતુ અહિયા પાચ પર્યાપ્તિવાળા હોય છે આમ જે કહેવામાં આવ્યું છે તે ભાષાપર્યાપ્તિ અને મન પર્યાપ્તિમાં અભેદની વિવક્ષાથી તેમ કહેલ છે हरिद्वारमा म ल मनुष्य "तिविहा वि दिट्ठी" सभ्यष्टि, मिथ्या, मने સમ્યકૃમિથ્યાષ્ટિ એમ ત્રણે પ્રકારની દૃષ્ટિવાળા હોય છે
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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