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________________ ५५० भगवतीये वध्नाति, भविष्यकाले भन्स्यति१, 'अत्थेगइए बंधी न बंधइ बंधिस्सई' अस्त्येककोऽबध्नात् न बघ्नाति भन्स्यति 'अत्थेगइए बंधी न बंधइन बंधिस्सई' अस्त्येककोऽधनात् न बध्नाति न मन्त्पति४ इत्येवं प्रथमतृतीय चतुर्थात्मकास्त्रयो मका अनुमोदिता भगवता मनःपर्यवज्ञानिनाम् । तत्रासौ पूर्वकाले आयुरबध्नात् इदानी देवायुर्वध्नाति ततो मनुप्यायु मन्त्स्यतीति प्रथमो भङ्ग, अवघ्नात् वध्नातिन भन्स्यतीत्याकारको द्वितीय मङ्गो न सम्भवति अवश्यं देवत्वे मनुष्यायुपो बन्धनाद में वह उसका बंध करता है और भविष्यत् में भी वह उसका बन्ध करेगा, 'अत्थेगइए बंधी, न धंधा, बंधिस्तद' तथा कोई एक मनापर्यव. ज्ञानी ऐसा होता है कि जिसने पूर्वकाल में आयुष्क कर्म का पन्ध किया है, पर वर्तमान में वह ललका धन्ध नहीं करता है, भविष्यत में वह उसका बंध करेगा। 'अत्थेगहए बंधी, न बंधन बंधिस्स तथा-कोई एक मनापर्यवज्ञानी ऐसा भी होता है कि जिसने पूर्व काल में ही आयु. ककर्म का बंध किया होता है, वर्तमान में वह उसका बंध नहीं करता है और न भविष्यत् में भी वह उसका बन्ध करेगा। इस प्रकार से यहां प्रथम तृतीय और चतुर्थ ये तीन भंग होते है। इनमें से प्रथम भंग का तात्पर्य ऐसा है कि मनापर्यघज्ञानी पूर्वकाल में आयु का यंध कर चुका होता है वर्तमान में वह देवायु का बन्ध करता है, उसके याद वह फिर मनुष्यायु का धन्ध करेगा। यहां पर 'अवघ्नात्, बध्नाति, न भन्स्यति' ऐसा जो यह द्वितीय भंग है वह संपवित नहीं होता है क्योंकि देवरव में वह नियमतः मनुष्यायु का वध करनेवाला होता है। ५५ रे छ ? भने लवियमा प त त ४२२ 'अत्थेगइए बंधी न पंधइ, बधिस्वइ' तथा मे मनः५वज्ञानी । डाय - પૂર્વ કાળમાં આયુષ્ય કર્મ બંધ કર્યો છે, પરંતુ વર્તમાન કાળમાં તે તેને मध ४२ता नथी. भविष्यमा त तन। म ४२” “अत्थेगइर बधी, न पंधर, न ब धिस्सइ' तथा १७ मे मनः५ ज्ञानी मेवा ५४ सय छ, ४ પૂર્વકાળમાં જ આયુષ્ય કર્મને બંધ કરેલો હોય છે. વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરતા નથી તેમ ભવિષ્ય કાળમાં પણ તેને બંધ કરશે નહીં આ રીતે અહીંયા પહેલે ત્રીજો અને એથે એ ત્રણ ભંગ હોય છે. તે પૈકી પહેલા ભંગનું તાત્પર્ય એ છે કે-મનઃ પર્યાવજ્ઞાની પૂર્વ કાળમાં આયુકર્મને બંધ કરી ચૂકેલ હોય છે. વર્તમાન કાળમાં તે દેવાયુને બંધ કરે છે, તે पछी ते ५२री भनुष्य मायुने। मय ४२२. मडियां 'अबध्नात् , बध्नाति, न भन्स्यति, सवा २ मा मीने म छ, त समवती नथी. भ દેવ પણામાં તે નિયમ થી મનુષ્ય આયુને બંધ કરવાવાળા હોય છે. ત્રીજે
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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