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________________ प्रन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०३ ज्ञानावरणीय कर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५९१ तृतीय भङ्गस्तु उपशमकस्य भवति, स हि न बध्नाति प्रतिपतितश्च भन्त्स्यतीति । चतुर्थभङ्गस्तु क्षपकस्य भवतीति । 'केवलनाणे चरमो भंगो' केवलज्ञानिनां तु atara भङ्गो भवति केवळी हि आयु ने वध्नाति न वा अग्रे भन्रस्यति सिद्धिगमनात् इति । ' एवं एएणं कमेणं नो सन्नोवउत्ते वितियविहूणा जहेव मणपज्जननाणे' एवम् अनेन क्रमेण नोसंज्ञोपयुक्ते जीवे द्वितीयमङ्गविहीनाः प्रथमतृतीयचतुर्थभङ्गा भवन्ति यथैव मनःपर्यवज्ञाने मनःपर्यवज्ञानिवदेव नोसंज्ञोपयुक्तस्य द्वितीयभङ्गरहितास्त्रयोभङ्गा वेदितव्या इति । 'अवेदए अकसाई य तय चउस्था जव सम्मामिच्छत्ते' अवेद के अकपायिनि च तृतीयचतुर्थी यथैव सम्यग्रमिध्यात्वे तृतीय भंग उपशमक के होता है क्योंकि उसके द्वारा पूर्वकाल में आयु का बन्ध किया जाता है, पर वर्तमान में वह आयु का बन्ध नहीं करता है, परन्तु जब श्रेणी से उपशमक श्रेणी से पतित हो जाता है तब वह आयु का बन्ध करने लगता है । चतुर्थ भंग क्षपक की अपेक्षा से है, 'केवलनाणे चरमो भंगो' केवलज्ञानों के चरम ही भंग होता है, क्योंकि केवली वर्तमान में आयु का बन्ध नहीं करता है, और न वह भविष्यत् काल में भी आयु का बन्ध करनेवाला होता है। क्योंकि वह तो सिद्धि में गमन करनेवाला होता है । ' एवं एएणं कमेणं नो सनोवन्ते, वितियविणा जहेब मणपज्जबनाणे' इसी प्रकार से इस क्रम द्वारा नो संज्ञोपयुक्त जीवों में द्वितीय अंग के बिना बाकी के प्रथम तृतीय और चतुर्थ ऐसे तीन भंग मनःपर्यवज्ञानी के जैसे जानना चाहिये, 'अवेदए अकसाई य तइय घउत्था जहेब लम्बामिच्छत्ते' वेद " ભગ ઉપશમ વાળાને હાય છે, કેમ કે તેના દ્વારા પૂર્વ કાળમાં આયુને બંધ કરવામાં આવે છે. પરંતુ વ`માન કાળમાં તે આયુના બંધ કરતા નથી. પરંતુ જ્યારે ઉપશમ શ્રેણીથી પતિત થઈ જાય છે, ત્યારે તે આયુના બંધ ४२वा लागे छे. थोथे। लौंग क्षपानी अपेक्षाथी उडे हे 'केवलनाणे चरमो भगो' ठेवण ज्ञानीने दो लौंग होय हे प्रेम-देवली वर्तमान अणभां આયુને અંધ કરતા નથી. તથા તે ભવિષ્યમાં કાળમાં પણ આયુને બધ ४२वावाजा होता नथी. उस तेथे। सिद्धिमां भवात्राणा हेय छे. 'एवं एएणं कमेणं नोच-नोवउत्ते, वितियविहूणा जहेव मणपज्जवनाणे' येथे ४ प्रभाषे मा ક્રમથી નાસ’જ્ઞોપચેગવાળા જીવામાં ખીજા ભંગ વિના માકીના પહેલેાત્રીએ અને ચેાથે એવા ત્રણ ભગે। મનઃ વજ્ઞાનીના કથન પ્રમાણે ઢાય છે 'अवेदर अकसाई य तहयचउत्था जहेव सम्मामिच्छते' वेह विनाना
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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