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________________ ५३८ भगवती सूत्रे श्रेणितः प्रपतितो भवेत्तदपेक्षयाऽयं तृनीयो भङ्गोऽवगन्तव्यः ३ । अवघ्नात्, न वध्नाति न भन्त्स्यति इति चतुर्थी भङ्गः क्षपकत्वापेक्षया ज्ञातव्य स्तदेवं शुक्लपाक्षिकस्य चत्वारो भङ्गा भक्तीति, अतएवाह - 'चउमंगो भाणियच्चो' इति । ननु कृष्णपाक्षिकस्य 'न बंधिस्मइ' एतंख्या संभवत्वेऽपि एतदंशात्मको द्वितीयो sa स्वीकृत स्तर्हि - शुक्लपाक्षिकस्य 'न बंधिस्त' इति पूर्वोक्तांशस्यावश्यश्यावात् 'वंधिस्सइ' इत्यशात्मकः प्रथमो सङ्गः कथं घटते ? इत्यत्र शृणु - शुक्लशुक्लपाक्षिक जीव जब श्रेणी से पतित हो जाता है तब वह पाप कर्म का बन्धक हो जाता है, अतः ऐसे जीव द्वारा भूतकाल में पापकर्म का बन्ध किया गया होता है पर वर्तमान समय में जब कि वह चारित्र मोहनीय का उपशम कर उपशम श्रेणी पर मौजूद है तबतक पापकर्म का बन्धक नहीं है, जब उपशमित मोहनीय की प्रकृति का उदय होने पर उसका पतन होता है तो वह फिर से पापकर्म का बन्धक हो जाता है । चतुर्थ संग क्षपक की अपेक्षा से है । इस प्रकार से यहां चार संग वनते है, इसीलिये सूत्रकार ने 'चभंगो भाणियबो' ऐसा सूत्रपाठ कहा है । शंका--कृष्णपाक्षिक के द्वितीय भंगान्तर गत 'न बंधिस्सई' यह अंश असंभावित है फिर भी उसे यहां स्वीकार किया गया है तो शुक्लपाक्षिक के 'न बंधिस्स' यह अंश अवश्यंभावी है तो ऐसी स्थिति में 'बंधिस्तह' इस अंशवाला प्रथम भंग वहाँ कैसे घटित हुआ है ? પતિત થઈ જાય છે. ત્યારે તે પાપ કર્મોના અન્ધક થઈ જાય છે, તેથી એવા જીવ દ્વારા ભૂતકાળમાં પાપકના બંધ કરાયા હૈાય છે. પરંતુ વર્તમાન સમયમાં કે જ્યારે તે ચારિત્રમેહનીય કનું ઉપશમન કરીને ઉપશમ શ્રેણી પર રહેલ છે, એવા તે જીવ પાપ કર્મના અધક હાતા નથી. પરંતુ જ્યારે ઉપશમ થયેલા મેહનીય કર્મીની પ્રવૃત્તિને ઉદય થાય ત્યારે તેનું પતન થાય છે. તે ફરીથી તે પાપ કર્માંના અંધક થઇ જાય છે. ચેાથેા ભંગ ક્ષેપકની અપેક્ષાથી કહેલ છે. એ રીતે અહિયાં શુકલ પાક્ષિકના સંબધમાં ચાર ભંગા जने छे तेथी सूत्रभरे 'चउमंगो भाणियन्वो' मे अभा सूत्रपाठ उद्यो छे. शौंडा–दृष्ट्युपाक्षिना बील लगान्तरभां रडेल 'न बंधिस्सइ' मा अश અસ’ભવિત છે, તે પણુ તેને અહિયાં સ્વીકારેલ છે. તે શુકલપાક્ષિકના 'न व धिस्सइ' भी अंश अवश्य है ? तो म स्थितिमा 'वधिस्स इ' भा મંશવાળા પહેલા ભંગ ત્યાં કેવી રીતે ઘટે છે ?
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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