SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ arranti 1 स्थानसन्निकर्षेण चारित्रपर्यः किं हीनः तुल्योऽस्यधिकोवा, वकुशः पुत्राकाट् चारित्रपर्यायै हीनस्तुल्योऽस्यधिको वा भवतीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो क्षीणे णो तुल्ले अन्मद्दिए' नो हीनो नो तुल्योऽभ्यधिको भवति, 'अनंतगुणम महिए' अनन्तगुणाभ्यधिको भवति । कुशः पुलाकात् अनन्तगुणाधिक एव भवति विशुद्धतरपरिणामन्यान् 'वउसे णं भंते । उसस्स साणसं निगा सेण चारितपज्जवेहिं पुच्छा' चकुः खलु भदन्त ! कुशस्य स्वस्थसन्निकर्षेण चारित्रपर्यायें कि हीन स्तुल्योऽधिको वा भवतीति पृच्छा - प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'सिय होणे सिय तुल्ले सिग अन्महिए' स्यात् कदाचिद दीनः अविशुद्धपरिणामत्वाद् स्यात् परस्थान की चारित्र पर्यायों की अपेक्षा हीन है ? अथवा तुल्य है ? अथवा अधिक है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'गोग्रमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अभहिए' हे गौतम! पण पुरु की नारित्रपर्यायों से हीन नहीं है और न तुल्य है किन्तु अधिक है। अधिकता में भी वह उससे 'अनंतगुणमन्महिए' अनन्तगुण अधिक में क्योंकि उसके परिणाम पुलाक के परिणामों से विशुद्धतर होते हैं । 'चउसे णं भंते । बउara सट्टा सन्निगासेणं चारित प्रज्जवेहिं पुच्छा' हे भदन्त ! चकुश अन्य कुश के चारित्र पर्यायों से क्या हीन होता है ? अथवा तुल्य होता ? अथवा अधिक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! सिय हीणे, सिग्र तुल्ले, सिय अन्महिए' हे गौतम! वकुश सजातीय घकुश की चारित्र पर्यायों की अपेक्षा से कदाचित हीन भी होता है, कदाचित् तुल्य भी होता है और कदाचित् अधिक भी होता है, । हीन હીન છે? અથવા તુલ્ય છે? અથવા વધારે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ४ छे - 'गोयमा ! णो होणे, णो तुल्ले, अन्भहिए' हे गौतम! मुश साકના ચારિત્ર પર્યાયથી હીન હાતા નથી. તેમ તુલ્ય પણ નથી. પરંતુ વધારે छे. अधिषाणाभां पातु ते तेनाथी 'अनंतगुणमव्यहि' अनंतगुण वधारे छे. प्रेम-तमनुं परिभालु चुसाउना परिभाषाथी विशुद्धतर होय छे. 'वरसेनं भंते ! बसस्स सट्टाणसन्निग सेणं चारिचपज्जवेहिं पुच्छा' हे भगवन् अङ्कुश બીજા મકુશેના ચારિત્ર પર્યાયેથી થ્રુ હીન હાય છે? અથવા તુલ્ય હાય અથવા અધિક હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! सिय होणे, सिय तुल्ले, सिय अन्भहिए' हे गौतम | मङ्कुश सन्न તીય અકુશેાના ચારિત્ર પાંચાની અપેક્ષાથી, કૈાઈવાર હીન પણુ હાય છે. કેાઈવાર તુલ્ય પણ હાય છે અને કોઈવાર વધારે પણ હાય છે, તે અવિશુદ્ધ **
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy