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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१५ उ.६ ०८ पञ्चदशं निकर्पद्वारनिरूपणम्ं १५७ कदाचित् सजातीय बकुशान्तरात् वकुशस्तुल्यः समानपरिणामत्वात् स्यात्-कदाचित् अधिकः विशुद्धपरिणामत्वात् 'जई हीणे छट्टाणवडिए' यदि वकुशाद् वकुश हीनो भवेत्तदा षट्स्थानपतितः अनन्तभागहीनः १, असंख्पे अभागहीनः २, संख्येयभागहीनः ३, संख्येयगुणहीनः ४, असंख्येयगुणहीनः ५, अनन्वगुणहीन ६ इति । 'उसे णं भंते ! पडि सेवणाकुसीलस्स परद्वाणसंनिगा सेणं चारितपज्जवेहिं किं हीणे० ' चकुः खलु भदन्त ! प्रतिसेवनाकुशीलस्य परस्थानसन्निकर्षेण चारित्र - पर्यायैः किं हीन स्तुल्योऽधिकोवेति मश्नः, उत्तरमाह - 'छड्डाण' इत्यादि, 'छट्टा वडिए' षट्स्थानपतितः, अनन्तभागहीनोऽसंख्येयभागहीनः संख्येयभागहीनः वह अविशुद्ध परिणामों की अपेक्षा से होता है, तुल्य वह समान परिणामों से युक्त होने के कारण होता है और अधिक विशुद्ध परिणामों के कारण होता है । 'जह हीणे छट्टानवडिए ' यदि एक बकुश दूसरे सजातीय से हीन होता है तब वह षट्स्थान पतित होता है-अर्थात् एक बकुश दूसरे सजातीय बकुश से या तो अनन्तभाग हीन होता है १ अथवा असंख्यात भाग हीन होता है २ अथवा संख्यात भाग हीन होता है ३ अथवा संख्यातगुण हीन होता है ४, अथवा असंख्यातगुण हीन होता है ५ अथवा अनंन्तगुण हीन होता है ६ । इसी प्रकार अधिक से भी बहू स्थानपतितता कह देनी चाहिये । 'बउसे णं भंते ! पडिलेवणाकुसीलस्स परद्वाणसंनिगासेणं चारितपज्जवेहिं किं होणे० ' हे भदन्त । वकुशविजातीय प्रतिसेवना कुशील की चरित्रों से हीन होता है ? अथवा तुल्य होता है ? अथवा अधिक होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'छाडिए ' हे પરિણામેાની અપેક્ષાથી હીન હૈાય છે. સમાન પિરણામા યુક્ત હેાવાને કારણે તે તુલ્ય હાય છે. અને વિશુદ્ધ પરિણામે ને કારણે તે અધિક હાય છે. વર્ हीणे सट्टाणवडिए' ले ते गडुश मील सन्नतीयथी हीन होय छे, त्यारे ते છ સ્થાનેથી પતિત થાય છે. અર્થાત્ એક અકુશ બીજા સજાતીય અકુશથી અનન્તભાગ હીન હૉય છે. ૧ અથવા અસંખ્યાતભગ હીન હોય છે ૨ અથવા સંખ્યાતભાગ હીન હૈાય છેરૂ અથવા સખ્યાતગુણુ હીન હેય છે. ૪ અથવા અસ ખ્યાતગુણુ હાય છે, ૫ અથવા મન'તગુળુ હીન હાય છે દુ 'बउसेणं संते ! पडिसेवणाकु शीलस्स परद्वाणसंनिंग सेणं 'घारित पज्जवेहि' कि' होणे० ' हे भगवन् अङ्कुश विलनीय प्रतिसेवनाडुशीलनी चारित्र पर्याय थी હીન હોય છે ? અથવા તુલ્ય હાય છે ? અથવા અધિક હૈાય છે ? આ પ્રશ્નના -
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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