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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सूc८ पञ्चदशं निकर्पद्वारनिरूपणम् कषायकुशीलऽपि व्यरच्छि यते-तदनन्तरं निर्ग्रन्थस्नातको एक संयमस्थानं माप्नुत इति । 'णियंठस्स जहा व उसस्स' निर्ग्रन्थस्य यथा-चकुशस्य यथा पुलाको बकुशस्य परस्थानसन्निकर्षण चारित्रपर्याय हीनः कथितः तथा-निग्रन्थस्य परस्थानसभिकर्षेण चारित्रपर्याय रनन्तगुण हीन एव भवति । 'एवं सिगायस्स वि' एवं स्नातकस्यापि, पुलाकः स्नातकादनन्तगुणहीनो भवतीत्यर्थः । पुलाकस्य वकुशा. दिनां हीनत्यादिकं निरूप्य वकुशस्यापि तदन्यैः सह हीनत्यादिकं निरूपयन्नाह'बउसे णे भने ! इत्यादि, 'वउसे णं भंते ! पुलागस्त परढाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि किं हीणे तुल्ले अन्भहिए' वकुशः खलु भदन्त ! पुलाकस्य परस्थानों को प्राप्त करता है। बाद में वह कषायकुशील भी अटक जाता है निग्रन्थ और स्नातक ये दोनों ही एक संयमस्थान को प्राप्त करते हैं। 'नियंठस्त जहा व उसस्त' इसलिये पुलाक परस्थान सन्निकर्ष को लेकर जिस प्रकार बकुश की चारित्रपर्यायों की अपेक्षा अनन्तगुण हीन कहा गया है उसी प्रकार वह निर्ग्रन्थ की चारित्रपर्यायो से भी अनन्त गुण हीन कहा गया है । 'एवं सिणायत वि' और इसी प्रकार वह पुलाक स्नातक की भी चारित्र पर्यायों की अपेक्षा अनन्तगुण हीन कहा गया है । इस प्रकार से पुलाम में बकुश आदि की अपेक्षा हीनता आदि का प्रतिपादन करते हैं-इसमें मौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'बउसे गं अंते ! पुलामहल परहाणसन्निगासेणं चरित्तपज्ज. वेहि किं हीणे, तुल्ले, अ०भहिए' हे अदन्त ! बकुश क्या पुलाक रूप કુશીલ જ અસંખ્ય ત સંયમ સ્થાનોને પ્રાપ્ત કરે છે. તે પછી તે કષાય કુશીલ પણ અટકી જાય છે નિન્ય અને સ્નાતક એ બન્ને એક જ સંયમસ્થાનને प्राप्त ४२ छ 'नियठस्स जहा बउसस्स' तथा पुरा ५२स्थानसन्निन લઈને જે રીતે બકુશના ચારિત્રપયાની અપેક્ષાથી અનંતગુણહીન કહયા છે. એજ પ્રમાણે તે નિર્ચથના ચારિત્ર પર્યાથી પણ અનંતગુણહીન કહ્યા છે. 'एव' सिणायस्स वि' मने मे प्रमाणे ते पुसा स्नात: ५५ यास्त्रियाયેની અપેક્ષાથી અનંતગુણ હીન કહ્યા છે. આ રીતે પુલોકમાં બકુશ વિગેરેની અપેક્ષાથી હીનપણું વિગેરેનું નિરૂ પણ કરીને હવે સૂત્રકાર બકુશમાં પણ બીજાઓની અપેક્ષ થી હીનતા વિગેરેનું પ્રતિપાદન કરે છે-આ સંબંધમાં શ્રીગૌતમસ્વામીએ એવું પૂછયું છે કે'वउसेणं भंते | पुलागस्स परटाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले अभहिए' समपन् । पुसा४३५ ५२०ानना यात्रिर्यायानी अपेक्षाथी
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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