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________________ अमेयचन्द्रिका टीका श० ११ उ० १२ सू० ४ पुद्गलस्य सिद्धिनिरूपणम् १४७ बक्ष्यमाणरीत्या स्वसिद्धान्तं प्रतिपादयति-'अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, एवं भासामि, जाव परूवेमि' हे गौतम! अहं पुनरेवम् आख्यामि, एवं भाषे, पावत्-प्रज्ञापयामि, प्ररूपयामि-'देवलोएसुणं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहरसाई लिई पण्णत्ता' देवलोकेषु खलु देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'वेण परं समयाहिया दुसमयाहिया जाव उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पणचा, तेणपर वोच्छिन्ना देवा य, देवलोगा य तेन परं समयाधिका, द्विसमयाशिका, यावत्-त्रिचतुः पञ्चषट्सप्ताष्टनवदश संख्याता संख्यातसमयाधिका उत्कृष्टेन अरविंशत् सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तेन पर व्युच्छिन्ना देवाश्च, देवलोअर्थ को मिथ्या कहा-और अपने सिद्धान्त को 'अहं पुण गोयमा! एवं आइक्खामि एवं भासामि जाव पख्वेमि' इस सूत्र वाक्य द्वारा इस प्रकार से सत्यरूप कहा-कि हे गौतम! मैं तो ऐसा कहता हूं, इस प्रकार से भाषण करता हूं यावत्-इस प्रकार से प्रज्ञापना करता हूं भोर इस प्रकार से प्ररूपणा करता हूं-कि 'देवलाएसु णं देवाणं जहश्रीगं दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता,तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया, बाप कोलेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णसा-तेण परं वोच्छिमा देवा य देवलोगा य' देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति १० हजार वर्ष की है और उत्कृष्टस्थिति एकसमयाधिक, दो समयाधिक आदि सा से अधिक होती हुई असंख्यात समयसे अधिक तक ३३ सागरोपमतक की है यहां यावत्-'शब्द से तीन, चार, पांच छह, सात, भार, नौ, दश और संख्यात इनले अधिक होती हुई" રાજકે દેવોની જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ વિષે જે કહે છે, તે શું સત્ય છે?” મહાવીર પ્રભુએ કહ્યું કે તે જે કહે છે તે મિથ્યા છે. પોતાની આ नी मान्यता ४८ ४२ता महावीर प्रभु ४३-"अह पुण गोयमा ! र बाइक्वामि, एवं मायामि जाव पस्वेमि" मौतमई तो मेनु કરું છું, એવું ભાંખું છું, એવી પ્રજ્ઞાપના કઈ છું અને એવી પ્રસ્પણ કરૂં .-"देवलोरण देवाण जहन्नेण दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता, वेण पर सबपाहिया दुसमयाहिया, जाव उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, ठिई पण्णताश्रम पर वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य" BRai देवानी धन्य स्थिति દસ હજાર વર્ષની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સમયાધિક, બે સમયાધિક, ત્રણ, भार, पाय, छ, सात, मा8, न, स सज्यात मन मसभ्यात समयाधि થતી થતી ૩૩ સાગરોપમ સુધીની હોય છે. એથી વધુ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા રે પણ નથી અને દેવલોક પણ નથી. તેથી જ ૩૩ સાગરોપમ કરતાં અષિક સ્થિતિવાળા દેવ અને દેવલેકેને બુચ્છિન્ન (અસ્તિત્વ વિનાના) કહ્યા છે,
SR No.009319
Book TitleBhagwati Sutra Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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