SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 851
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब काल तिनको निकट आयो, भव हम ऐसे भये । भावै जु दर्शविशुद्धी मन वच, काय जोग लगाय जी। ताकियो सबही धर्म नीको, होय इमि समझाय जी ।। दोहा दश विशुद्धी भावना, भावो मन वच काय । तो बांधो पद तीर्थ को, और अधिक कहा गाय ।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धि भावनायै पूर्णाघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 3. विनय सम्पन्नता भावना पूजा 4. (मुनयानन्द की चाल ) विनय सब धर्म को मूल जानो सही, विनय बिन धर्म विधि सकल निष्फल कही। जान इमि थापना थाप यहाँ भायजी, विनय - सम्पन्नता जजों मन लाय जी।। ऊँ ह्रीं श्री विनयसम्पन्नता भावना ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्री विनयसम्पन्नता भावना ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्री विनयसम्पन्नता भावना ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। नीर गंगातनो, निर्मल लाइयो, कनकझारी विषै, धार शुभ पाइये। पूजिये विनयतैं विनयभावन सही, तासफल निर्मलो, होय उर जिन कही। ऊँ ह्रीं श्री विनयसम्पन्नता भावनायै जलम् निर्वपामीति स्वाहा। लाबनो चन्दना, नीर घसवाइये, रतन पातर विषें धार गुन गाइये । पूजिये विनयतें विनयभावन सही, तासफल चार- गति - पाप विनसे सही || ऊँ ह्रीं श्री विनयसम्पन्नता भावनायै चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा। 851
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy