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________________ देख परवस्तु चित, घिन नहीं आनि है, रूप शुभ अशुभ सब, पौद्गलिक मानिहै। निर्विचिकित्सगुण यही, जीव हितदाय है, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्री निर्विचिकित्सागुणसहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। देव गुरु धर्म को, परखसेवे सही, बिन परीक्षा गुरु देव सेवे नहीं। ___ दृष्टि सांची सरध, उर विर्षे पाय है, भाव सो दर्शसंशद्धि सुखदाय हैं। ॐ ह्रीं श्री अमूढ़दृष्टिगुणसहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। स्वपर के दोष को, नाँहिं मुखतें कह, दोष परके सदा, ढाँकना उर चहै। सदाचित्त शान्त, करुणामई पाय है, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ॐ ह्रीं श्री उपगृहनगुणसहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। धर्म से डिगत को थिरी सो करत है, देत उपदेश मन-भरम को हरत है। धर्मधर आप फिर और धर्मदाय है, भाव सो दर्शसंशृद्धि सुखदाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्री स्थितिकरणगुणसहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। देश धर्मी भली, प्रीति तासों करे, गऊ लख पुत्र ज्यों, हर्ष मन में धरे। धर्म अंग धार हित-कार गुण पाया है, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्री वात्सल्यगुणसहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। मन वच काय धन, बुद्धि तपये सही, मति श्रुतज्ञान मन-पर्ज अवधी कही। ___ धर्म परभाव इनतें करे भाव है, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्री प्रभावनागुणसहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 838
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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