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________________ आठ गुण ये धरे, शुद्ध सरधा करे, तत्त्व सरधान में, भरम नाँही परे। आप चिद्रूप, पर देख जड़ भाय है, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ॐ ह्रीं श्री अष्टगुणसहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। मातृपक्ष मदकरे, हर्ष मन में धरे, नाम मम मान बहु, धान धन अनुसरे। जाति मद जान यह, नांहि उर लाय है, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ॐ ह्रीं श्री जातिमदरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। पितामह पिता मम, बड़े पदधार हैं, द्रव्य बहु हुक्म को, सके नहिं टार हैं। जान यह कुलमद, नांहि उर लाय हैं, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्री कुलमदरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। द्रव्य बह लाय हं बुद्धिबलतें सही, दीप दधि मैं फिरयो माल पैदा करी। लाभप्रद जान यह नाँहि उर लाय है, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ॐ ह्रीं श्री लाभमदरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। रूप हम तनु जिसो, काम तन है नहीं, नैन कर शीश मुख, महासुख की मही। जान यह रूपमद, नाँहि उर लाय है। भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्री रूपमदरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। करों तप मास, दो मास, षट् मास जी, और वह तप करों, धारि अति सांसजी। जान तपमद यही नाहिं इमि भाय है, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्री तपोमदरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 839
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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