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________________ धूप दशधा महागन्ध जुत सब लई, खेय वन्हीं विर्षे भक्ति मुखतें चई। पूजिये भावना, दर्श शुद्धि आदिया, या बिना मोक्षमारग नहीं किन लिया।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धि भावनायै धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।।7। सुभग श्रीफल भला आनिफल सारजी, भक्तकों देत हैं मुक्तिफल धारजी। पूजिये भावना, दर्श शुद्धि आदिया, या बिना मोक्षमारग नहीं किन लिया। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धि भावनायै फलम् निर्वपामीति स्वाहा।।8। नीर दनाक्षतं पुष्पचरु दीपजी, धूपफल लेयकारै अध्य शुभटीपजी। पूजिये भावना, दर्श शुद्धि आदिया, या बिना मोक्षमारग नहीं किन लिया।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।9। भावना भली यह दर्शसंशुद्धिया, सकल धर्म अंग के मुख्य यह जिन चया। या भये मोक्षमग निकट भासे सही, जानि इमि भली हम अध्य करते ठही।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धि भावनायै महाध्यम निर्वपामीति स्वाहा।।10॥ प्रत्येकायं (मुनियानंद की चाल) धर्ममारग वि, शंक ताके नहीं, होय निर्भय गुरू देव धर्म पद ठही। भेदविज्ञान में, शंग नहिं आय है, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितगुणसहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। धर्म सेवे नहीं, चाह हिरदे करे, भोग चक्री सुरा इन्द्र के परिहरे। एक शिवचाह अनि, भूल नहिं पाय है, भाव सो दर्शसंशुद्धि सुखदाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्री निःकांक्षितगुणसहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 837
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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