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________________ ऊँ ह्रीं समवायांग जिनागम पठन पाठन गण भूषिताय उपाध्याय परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। षट द्रव्यों के गुण अस्ति, नास्ति, वक्तव्य, अवक्तव्यादि रूप। या एक अनेक अनित्य नित्य, इत्यादि प्रश्न, शंका स्वरूप।। गणधर के साठ हजार प्रश्नगत समाधान का व्याख्याता। व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग, इसके पाठक हों उपाध्याय ज्ञाता।। दो लाख अट्ठाइस सहस, पद से अंग समृद्ध। प्रश्नों के उत्तर लहें, इससे साधु प्रबुद्ध।।5।। ऊँ ह्रीं व्याख्या प्रज्ञप्ति जिनागम पठन पाठन गुण भूषिताय उपाध्याय परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जीवादिक के निज गुण स्वभाव, दश धर्म आदि का दरशायक। सम्यक दर्शन अरु ज्ञान चारण, रत्नत्रय निधि का परिचायक।। तीर्थंकर महिमा, दिव्य ध्वनी अरु, धर्म सभा, जिन समोशरण। व्याख्याता सबका ज्ञातृधर्म परिकथा अंग, शुभ सुमतिकरण।। पांच लाख छप्पन सहस, पद संख्या सम्प्राप्त। ज्ञातृकथा श्रुत अंग यह, सन्मतिदाता ख्याता।।6।। ऊँ ह्रीं ज्ञातृकथांग जिनागम पठन पाठन गुण भूषिताय उपाध्याय परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जिनवर पूजा, गुरुभक्ति, संयमी मुनियों को आहार दान। आचार्य संघ सेवा सुश्रूषा, वैयावृति करे वखान।। मुनिसंघ उपासक श्रावक की, चर्या प्रतिमा, व्रतशील धर्म। कहता उपासकाध्ययन अंग, कर्त्तव्य क्रिया विनायादि कर्म।। 790
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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