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________________ केवल ज्ञानी जीव के, हो नहिं अदयाभव। जीव घात उनसे न हो, ऐसा सदय स्वभाव॥14॥ ऊँ ह्रीं अदयाभवअभावरूपकैवल्यातिशयमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। केवल श्री अरहन्त के, नहिं होता उपसर्ग। कष्ट उन्हें नहिं दे सकें, नर त्रियंच सुर वर्ग॥15॥ ऊँ ह्रीं निरूपसर्गतारूपकैवल्यातिशयमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। केवलज्ञान प्रभावतैं, भूख न आती पा कवलाहारी हों न प्रभु, जिनमत दृढ़ विश्वास।।16।। ऊँ ह्रीं कवलाहाराभाव रूप कैवल्यातिशयगुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। सब विद्याओं के धनी, होते प्रभु अरहन्त । स्वयं तिरें भव सिन्धु से, तारे भव्य अनन्त॥17॥ ऊँ ह्रीं सर्व विद्या ईश्वरत्व रूप कैवल्यातिशयगुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। नख केशों की वृद्धि भी, रुक जाती जिनदेह। ऐसे प्रभु अरहन्त को, शतशः नमन सनेह ॥18॥ ऊँ ह्रीं नख केश वृद्धि विहीनता रूप कैवल्यातिशयमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। 770
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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