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________________ ऊँ ह्रीं बज्रवृभषनाराय संहनन रूपातिशय गुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जन्म समय के सुगुण दश, हों अतिशय अनुरूप। श्री जिन वर जयवन्त नित, दश गुणवान अनूप।। ॐ ह्रीं जन्मातिशयतिशय गुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। 10 कैवल्यातिशय मूलगुण प्रभु चार घतिया कर्मजयी, अर्हन्त देव जिस क्षेत्र रहें। इक शत योजन तक हो सुभिक्ष, कोई क्षुधात पीडित न रहे।। भुखमरी वहां से दूर भगे, दुर्भिक्ष पलायन कर जावे। मिटता आपस का वैमनस्य, वात्सल्य भाव सबको भावे।।1।। ॐ ह्रीं एकशत योजन सुभिक्षता रूप कैवल्यातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। केवलि प्रभु अरहन्त का, भू पर गमन न होय। चतु अंगुलि नभ में चलैं, यह अतिशय शुभ होय।।12।। ऊँ ह्रीं गगनगमनरूपकैवल्यातिशयगुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु मुख पूरव दिशि रहे, किन्तु दिखे चहुं ओर। समोशरण में सब कहें, प्रभु मुख उनकी ओर।।13।। ॐ ह्रीं चतुर्दिशमुखमण्डलकैवल्यातिशयमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। 769
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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