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________________ नेत्र पलक की वृद्धि भी, रुक जाती जिनदेह। ऐसे प्रभु अरहन्त को, शतशः नमन सनेह॥19॥ ऊँ ह्रीं अनिमिष दृष्टि रूप कैवल्यातिशयमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। जिन तन छाया नहीं पड़े, वे अरहन्त महान । मोहि महारिपु दलन कर, पाया केवल ज्ञान॥20॥ ऊँ ह्रीं तन छाया विहीनता रूप कैवल्यातिशयगुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। केवलज्ञान प्रकाशतें, दश अतिशय सम्प्राप्त। वीतराग को नित नमूं, हित उपयोगी आप्त ।। ॐ ह्रीं दश कैवल्यातिशय गुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। देवकृत 14 अतिशय मूलगुण अर्हन्तदेव का सदुपदेश हो, अर्घ मागधी भाषा में। जिसको सुन प्राणि समझ लेते, अपनी अपनी ही भाषा में ।। होने पर केवल ज्ञान प्रकट, यह देव रचित होता अतिशय । सुरगण करते मंगल उत्सव, अरु भक्ति करें धरि हृदय विनय ॥21॥ ऊँ ह्रीं अर्धमागधीभाषाया देशना गुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। 771
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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