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________________ स्थविर कल्प मुनि धर्म बखान, दान ऋद्धिको भेद सुजान। या धारक जिन गुण गंभीर, जजों चरण मेटो भव पीर।। ऊँ ह्रीं स्थविरकल्पमुनिधर्मोपदेशप्राप्ताय भगवत् जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।।6।। मुनि जिनकल्प तणों जो धर्म, सोउपदेश दियो शिव शर्म दान ऋद्धि धर यह जिनराय, सो मैं जजूं भावना भाय।। ऊँ ह्रीं जिनकल्पमुनि धर्मोपदेशप्राप्ताय भगवत् जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।।7।। शुद्धात्मैक ध्यान से लीन, होने को उपदेश सु कीन। दानलब्धि का भेद निहार, या धारक जिन नमि दुख टार ऊँ ह्रीं शुद्धात्मधर्मोपदेशप्राप्ताय भगवत् जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥8॥ शुद्धतम पद प्रापतित, उपदेश्यो व्रत अर्थ समेत। दान ऋद्धि जो है अविकार, पूजूं पूरण अर्घ उतार।। ॐ ह्रीं शुद्धात्मप प्राप्त्यर्थ उपदेशधारकाय भगवत् जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥9॥ जयमाला (दोहा) अभय दान सबको दियो, परमातम पद पाय। दान लब्धि के हेतु मैं, नमि जयमाल सु गाय।। छंद (मोतियदाम) नमोनित वीर जिनेश्वर पाय, नमैं नित आय सुरासुर राय। सुनी तब वीर जिनेश्वर राय, नमैं नित आय सुरासुर धाय।।1।। मुनीन्द्र गणेन्द्र करै गुणगान, लहै तब मुक्ति रमा अमलान। अहो जिन केवल रूप अनूप, तुही जग में शिव लायक भूप || 2 || 659
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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