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________________ तुही दुख नाशन शासन शुद्ध, अलोभ अमान अशल्य अक्रुद्ध। अराग अरूप अमूरति संत, अदोष अखंड सदा जयवंत।।3।। जगत्त्रय शासन भाषक ज्ञान, हन्यो जिनने जग जीव अज्ञान। जपूं गुण धार हिये शुचि सार, प्रभो हमको भवसागर तार।।4।। दोहा अष्ट द्रव्यकर धार के, आयो तुम दरबार। ‘चन्द्र' मिथ्यात निवारिसो, पूजों अर्घ उतार।। ऊँ ह्रीं दान लब्धि धारकाय भगवत् जिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघु निर्वपामीति स्वाहा। दोहा दान लब्धि पूजा करे, जो नर मन वच काय। शक्र चक्र सुख भोगके, लहे मोक्ष थल जाय।। ।इत्याशीर्वादः॥ लाभ लब्धि पूजा (दोहा) लाभ लब्धि नव भेद हैं, ता धारक जिनराय। आह्वानन विधि ठानके, जजों थापि हरषाय॥ ऊँ ह्रीं लाभलब्धिधारक भगवत् जिनेन्द्र अत्रवतरावतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं लाभलब्धिधारक भगवत् जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं लाभलब्धिधारक भगवत् जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। (सोरठा) पद्म द्रहै को नीर, भर झारी त्रय धार दे। नशै जन्म मृत पीर, लाभ लब्धिधर जिन जजों।। ऊँ ह्रीं लाभ लब्धि धारकाय भगवत् जिनेन्द्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।1।। 660
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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