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________________ ये चाहै पैताहि न भावै, हास्य वचन कहि ताहि रिझावै। यह शर काम तहां नहिं होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ।। ऊँ ह्रीं श्री हास्यकामबाणवर्जनोत्तम-ब्रह्मचर्य धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा॥19॥ परगट वचन कहन नहिं पावै, सैन करें तिय जिय ललचावै। जाके यह शर काम न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै ॥ ॐ ह्रीं श्री इंगितचेष्टावर्जनोत्तम-ब्रह्मचर्य-धर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥20॥ कामदेव जब अधिक सतावै, मिलै तिया नहिं प्राण गवावै। ये शर कामजहां नहिं होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।। ऊँ ह्रीं श्री मारणकामबाणवर्जनोत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा॥21॥ दशविधि कामबाण नशि जाई, शील बाड़ि पाले नवधाई। सो जिय शिवसुंदरि कों जोवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।। ॐ ह्रीं श्री शुद्धब्रह्मचर्य धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।22।। दोहा शील शिरोमणि जगत में, सकल धरम शिरमौर । शिवकर अघहर पुण्यभर, जजौ शील गुण ठौर। शील सिद्ध थलका मग जानो, शील सुरग सरिता मन आनो। शील भावतै अध नशि जाई, सांचा धर्म शील है भाई || शील मनुज भव में ही गाया, नहिं निजजन्म सुफल करि भाया। शील समुद्र संसार तराई, सांचा धर्म शील है भाई || शील सहाय करे जग जाकी, सुननर सेव करत हैं ताकी । 651
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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